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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 405
जमाली की कथा जिन-प्रणीत तत्त्वों के विपरीत मान्यता या श्रद्धा ही मिथ्यादर्शन है। यह शल्य की तरह दुःख देनेवाला होने से इसे मिथ्यादर्शन-शल्य कहा जाता है। शल्य दो प्रकार के हैं-प्रथम द्रव्यशल्य, जैसे- भाला, तलवार आदि, शस्त्र और द्वितीय भावशल्य, जैसे- मिथ्यादर्शन। इस विषय पर संवेगरंगशाला में जमाली की निम्न कथा वर्णित है-793
जहाँ एक ओर जमाली भगवान महावीर की बहिन का पुत्र था, तो दूसरी ओर वह उनका जामाता भी था। उसने राज्य-सुखों को त्यागकर पाँच सौ राजपूत्रों के साथ दीक्षा ली थी। जमाली श्रद्धापूर्वक धर्मसाधना करता था। एक दिन जमाली को पित्तज्वर की तीव्र पीड़ा हुई। असहनीय पीड़ा होने पर उसने शयन के लिए स्थविरों को संथारा बिछाने को कहा। जमाली के कहने पर साधु शीघ्रता से संथारा बिछाने लगे। दर्द सहन करने में असमर्थ होने से थोड़े ही समय बाद जमाली ने पुनः साधुओं से पूछा- "क्या संथारा बिछा दिया गया है, अथवा नहीं?" साधुओं ने थोड़ा ही संथारा बिछाया था, अतः उन्होंने कहा कि संथारा बिछा दिया गया है। जमाली उस स्थान पर आया और संथारे को बिछाते हुए देखकर सहसा भ्रमित हुआ। उसने कहा- “हे मुनियों! तुम असत्य क्यों बोल रहे हो? संथारा बिछाते हुए भी संथारे को बिछा दिया गया-ऐसा क्यों बोलते हो?" स्थविरों ने कहा- “जिस कार्य का प्रारम्भ हो गया हो, वह कार्य हुआ, अर्थात् क्रियमान कृत्य है- ऐसा वीर परमात्मा कहते हैं, तो बिछाते हुए संथारे को, बिछा दिया ऐसा कहने में क्या अयुक्त है?" स्थविरों द्वारा समझाने पर भी वह इस मिथ्या मान्यता से ग्रसित हो गया कि क्रियमान् अकृत है। अपने दुराग्रह से वह सम्यक्त्व से च्युत हुआ और यह मानने लगा कि कार्य पूर्ण होने पर ही कार्य हुआ- ऐसा कहना चाहिए। इस प्रकार गलत पक्ष की स्थापना कर वह वीर प्रभु के शासन से निमन बना और दुष्कर तप करते हुए लम्बे समय तक पृथ्वीतल पर विचरण करने लगा।
भगवान् महावीर की पुत्री व जमाली की पत्नी प्रियदर्शना भी भगवान् के पास दीक्षा ली हुई थी, वह भी जमाली के मत को माननेवाली बनी। ढंक कुम्भकार द्वारा पुनः समझाने पर वह फिर से महावीर के सिद्धान्त का अनुसरण करनेवाली बनी, किन्तु मिथ्याभिमान में डूबा हुआ जमाली अपने तप एवं संयम
19 संवेगरंगशाला, गाथा ६५०६-६५३८.
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