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404 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
एक बार जब वे सभी चोर एक घर के पास सेंध लगा रहे थे, तब उस घर के मालिक ने उन्हें देखा। वह उस सेंध के मुख के पास आकर खड़ा हो गया। एक चोर को साँप की तरह घर में घुसते हुए देखकर उसने उसे तुरन्त पकड़ लिया। अपने साथी को पकड़ते हुए देखकर दूसरे सभी चोर भाग गए। दूसरे दिन प्रातःकाल उस पुरुष ने चोर को राजा के समक्ष प्रस्तुत किया। राजा ने चोर से कहा- “यदि तू सत्य कहेगा, तो तुझे छोड़ दिया जाएगा", किन्तु उसने कुछ भी नहीं कहा। जब चाबुक तथा दण्ड से उसे मारा गया, तब उसने सर्व सत्य-वृत्तान्त कहा। इस तरह सर्ववृत्तान्त जानकर तुरन्त ही उस कपटी त्रिदण्डी साधु एवं चोरों को पकड़कर लाया गया और उनको तब तक मारा गया, जब तक उन लोगों ने अपने दुराचारों को स्वीकार नहीं किया। बाद में, 'यह त्रिदण्डी ब्राह्मणपुत्र है'- ऐसा जानकर राजा ने उसकी दोनों आँखें निकलवा दी और उसका खूब तिरस्कार करवाकर नगर से बाहर निकाल दिया।
जब वह ब्राह्मण भिक्षा के लिए घर-घर भटकने लगा, तब लोगों के द्वारा फिर तिरस्कृत किया गया। इस दुःख से पीड़ित होकर पश्चाताप करते हुए वह विचारने लगा- 'हा! मैंने यह कैसा कार्य किया है?' ऐसा विचार कर वह स्वयं पछताने लगा।
इस कथा का सार यह है कि अविनय एवं अन्याय के भण्डाररूप माया मृषावाद का त्याग करके मन में समाधि प्राप्त करना चाहिए।
कपटयुक्त मृषावचन (मायामृषावाद) मनुष्यों के मनरूपी हरिण को वश में करने के लिए जल के समान है। यह अनन्त भवों तक कटुफल देनेवाला है। जैसे- खट्टे पदार्थ से दूध बिगड़ जाता है, वैसे ही मायामृषावाद से धर्मक्रिया भी निष्फल हो जाती है। यदि मायामृषावाद में अनेक दोष नहीं होते, तो पूर्व मुनिजन इसका त्याग करने को नहीं कहते।
इस कथा का उल्लेख हमें अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता है।
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