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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 403 परपरिवाद, अर्थात् दूसरों की चुगली या निन्दा करना। अभ्याख्यान एवं परपरिवाद में अन्तर यह है कि अभ्याख्यान में तीव्र द्वेष की परिणति में झूठा कलंक लगाया जाता है, जबकि परपरिवाद में ईर्ष्यावश, अथवा परनिन्दा का व्यसन होने से दूसरे की आलोचना की जाती है। निन्दक को पीठ का मांसभक्षक कहा गया है। संवेगरंगशाला में इस सम्बन्ध में सुभद्रा की कथा दी गई है। आचार्य जिनचन्द्रसूरि द्वारा प्रस्तुत यह कथानक हमें आवश्यकचूर्णि (भाग-२, पृ. २६६-२७०), व्यवहारवृत्ति (भाग-२, पृ. ३४), स्थानांगवृत्ति (पृ. २५७), बृहत्कल्पवृत्ति (पृ. १६३३), दशवैकालिकचूर्णि (पृ. ४८), आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी उपलब्ध होता है। कूट तपस्वी की कथा कुटिलता से युक्त मृषावचन को माया मृषावाद कहा गया है। यह मैत्री का नाशक, विनय का भंजक और अकीर्ति का कारण है, इसलिए बुद्धिमान् पुरुष इसका आचरण नहीं करता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में कूट तपस्वी की निम्न कथा वर्णित है-792 उज्जयिनी नगरी में शिव नाम का एक कपटी ब्राह्मण रहता था। वह सबको ठगने का कार्य करता था, इसलिए लोगों ने उसे नगर से बाहर निकाल दिया और वह अन्य देश को चला गया। वहाँ वह चोरों की मण्डली के साथ मिल गया और उनसे कहने लगा- “यदि तुम मेरी सेवा करोगे, तो मैं साधु बनकर लोगों से धन का स्थान जानकर तुमको बताऊगाँ, फिर तुम सभी सुखपूर्वक चोरी करना।" सभी ने उसकी बात मान ली। वह त्रिदण्डी का वेश धारणकर तीन गांवों के बीच उपवन में रहने लगा। इधर चोरों ने गाँव में प्रचार किया कि यहाँ ज्ञानी एवं महातपस्वी साधु विराजित हैं, जो सभी की मनोकामना पूर्ण करते हैं। ऐसी बात जानकर लोग उस नकली कूट तपस्वी की सेवाभक्ति करने लगे और उससे अपने धन-वैभव की बात भी बताने लगे। प्रतिदिन गाँव के लोग उसकी सेवा करते, लेकिन वह बगुले की तरह ऊपर से स्वयं को उपकारी दिखाता और अन्दर से चोरों को उनके भेद बताता तथा रात्रि में उनके साथ जाकर चोरी भी कर लेता। कालान्तर में उन ग्रामों में एक भी घर ऐसा नहीं बचा, जिसमें चोरी न हुई हो। 792 संवेगरंगशाला, गाथा ६४५४-६४७१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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