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402 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
इस तरह ससुराल पक्ष में उसे दोषी घोषित कर दिया गया। पति को अपने से पराङ्मुख देखकर तथा लोगों के मुख से जैनधर्म की निन्दा सुनकर सुभद्रा ने परमात्मा की पूजन, आदि क्रिया की और कहा- “जब तक शासनदेव मेरी सहायता नहीं करेंगे, तब तक मैं कायोत्सर्ग पूर्ण नहीं करूँगी।" उसकी भावभक्ति से सम्यग्दृष्टि देव प्रसन्न हुआ और उसने कहा- “हे भद्रे! मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ?" तब सुभद्रा ने कायोत्सर्ग पूर्णकर कहा- “हे देव! तुम्हें ऐसा कार्य करना है, जिससे जिनशासन की जो निन्दा हो रही है, वह दूर हो जाए
और शीघ्र जैनधर्म की महती प्रभावना भी हो जाए।" देव तथास्तु कहकर अदृश्य हो गया। दूसरे ही दिन नगर के चारों दरवाजे बन्द हो गए। इससे नगरजन आकुल-व्याकुल होने लगे। कुछ समय बाद आकाश से देववाणी हुई- जिस दिन शीलवती स्त्री के द्वारा चलनी में जल लेकर द्वार पर छींटे डाले जाएँगे, उस दिन ही ये द्वार खुलेंगे। इस पर राजा की अनेक रानियाँ, उत्तमकुल की पुत्रवधुएँ आदि अनेक स्त्रियाँ द्वार खोलने के लिए आने लगी, किन्तु चलनी में जल स्थिर नहीं रह पाने के कारण वे सभी द्वार खोलने में असमर्थ हुई। इससे जन-समूह व्याकुल होने लगा और पुनः शीलवती स्त्री की खोज होने लगी।
उस समय सुभद्रा अपनी सास से कहने लगी- “माँ! यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं भी द्वार खोलने जाऊँ।" तब सास हँसते हुए कहने लगी- “वाह! अपने-आपको सती-सावित्री समझती है, जा देखें तो सही, तू कैसी सती है?" सास द्वारा इस तरह प्रत्युत्तर देने पर सुभद्रा तुरन्त स्नान करके श्वेत वस्त्र धारणकर वहाँ पहुँची। वहाँ पहुँचकर सुभद्रा ने चलनी में जल भरा और द्वार पर डाला। इस तरह तीनों द्वारों पर पानी डाला और तीनों द्वार खुल गए। “इस चौथे द्वार को मेरे समान कोई शीलवती स्त्री ही खोलेगी, तब यह खुलेगा"- ऐसा कहकर चौथे द्वार को उसने यूं ही छोड़ दिया। उसी समय राजा तथा प्रजाजनों द्वारा जैनधर्म की खूब प्रशंसा हुई और उसका बहुत सत्कार हुआ। नगरजनों द्वारा सम्मान प्राप्त कर सुभद्रा जब घर पहुंची, तब सभी ने वस्तुस्थिति पहचानी। सभी ने सुभद्रा की प्रशंसा की और उसके ससुराल-पक्ष की खूब निन्दा की।
संयम में उद्यमशील साधु को आत्मप्रशंसा, परनिन्दा, जिवालोलुपता, जननेन्द्रिय-लोलुपता और कषाय- ये पांचों संयम से भ्रष्ट करते हैं। परपरिवाद का विपाक अतिकटु है, अनेक संकटों का समूह है, जन्म-जन्मान्तर में दुर्गति में गिरानेवाला है। जो व्यक्ति दूसरों के प्रति मात्सर्यभाव रखकर अपनी आत्मश्लाघा के लिए परनिन्दा करता है, वह कई जन्मों तक निम्न योनियों में परिभ्रमण करता
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