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________________ सती सुभद्रा की कथा दूसरों के दोषों को अन्य के समक्ष प्रकट करना ही परपरिवाद कहलाता है । यह परपरिवाद मात्सर्यवृत्ति का उत्कर्ष दिखाने की भावना से ही उत्पन्न होता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति हमेशा दूसरों के छिद्रों (कमियों) को देखता है। परपरिवाद संघर्ष और विवाद का मुख्य कारण है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में सती सुभद्रा की निम्न कथा वर्णित है - 791 चम्पानगरी में एक बौद्ध व्यापारी का पुत्र रहता था। उसने किसी प्रसंग पर जिनदत्त श्रावक की सुभद्रा नामक पुत्री को देखा, जिससे उसके प्रति उसे तीव्र राग उत्पन्न हुआ तथा उसके रूप में मोहित बना वह बौद्धपुत्र उससे विवाह करने का इच्छुक हुआ। एक दिन उसने विवाह के लिए जिनदत्त श्रावक से प्रार्थना की, लेकिन जिनदत्त श्रावक ने किसी मिथ्यादृष्टि के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने से इंकार कर दिया। फलतः, उसने एक कपटवृत्ति अपनाई और जैन मुनि के पास जाकर श्रावकधर्म स्वीकार कर लिया। इस तरह उसने बौद्धधर्म से अपने-आपको जैनधर्म में परिवर्तित कर लिया। प्रतिदिन उसे धर्म-श्रवण करते देखकर जिनदत्त श्रावक ने विचार किया- 'लगता है इसे जैनधर्म के प्रति सच्चा अनुराग हो गया है और ऐसा मानकर उसने सुभद्रा का विवाह उसके साथ कर दिया तथा कहा कि इसकी धर्म- - साधना में कहीं आंच न आए, इसका ख्याल रखना, क्योंकि विपरीत धर्म से युक्त स्वजनों के साथ रहकर वह अपनी धर्मसाधना नहीं कर पाएगी । अपने श्वसुर की आज्ञा को स्वीकार करने के बाद दोनों अपने घर पहुँचे। वहाँ जाकर सुभद्रा प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव की सेवा, पूजा तथा सुपात्रदान, आदि धर्मक्रिया करने लगी, परन्तु श्वसुरपक्ष हमेशा उसके छिद्र देखता रहता और उसकी निन्दा करता, फिर भी वह सद्धर्म में रत रहती थी। जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 401 किसी दिन एक मुनि भिक्षार्थ उसके घर पधारे। उस समय मुनि की आंखों में तृण गिरा हुआ था । 'मुनि को पीड़ा होती होगी' - ऐसा विचारकर सुभद्रा ने सावधानी से विशेष स्पर्श किए बिना जीभ से तृण निकाल दिया, लेकिन इस दौरान सुभद्रा के मस्तक का तिलक मुनि के मस्तक पर लग गया। इस दृश्य को सुभद्रा की ननन्द ने दूर से देखा और वह अपने भाई से बोली- “तेरी स्त्री ने अभी एक मुनि के साथ काम - भोगकर उसको विदा किया है। यदि तुझे मुझ पर विश्वास नहीं है, तो उस मुनि के ललाट को देख।” उसने मुनि के ललाट पर तिलक देखा और बिना विचार किए ही वह सुभद्रा की उपेक्षा करने लगा । 791 संवेगरंगशाला, गाथा ६४००-६४३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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