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400 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
किसी दिन सुबन्धु मन्त्री राजा से आज्ञा प्राप्त कर चाणक्य के घर गया। वहाँ घर पर मजबूत ताले को देखकर 'सारा धन यहीं होगा'- ऐसा विचारकर धन की आशा में उसने ताले को तोड़ा और पेटी बाहर निकाली। पेटी में से उसने उस डिब्बे को निकालकर खोला, उसके अन्दर रखे सुगन्धित चूर्ण को उसने सूंघा और साथ में रखा हुआ भोजपत्र भी पढ़ा। मन्त्री उसका सम्यक् अर्थ समझ गया। उस चूर्ण का प्रभाव देखने के लिए उसने एक पुरुष पर उसका प्रयोग करने हेतु उसे चूर्ण सुंघाया। उस चूर्ण के सूंघने के पश्चात् उस पुरुष ने भोग किया, जिससे वह मर गया। सुबन्धु ने कहा- “अरे चाणक्य! स्वयं मरते हुए भी तूने मुझे भी मार डाला।" इन्द्रिय-विषयसुखों को भोगने की इच्छा होने पर भी वह मन्त्री उन भोगादि का त्याग कर रहने लगा, क्योंकि उसने भी उस चूर्ण को सूंघा था और यदि वह विषयभोग करता, तो वह स्वयं भी मर जाता।
कहा भी गया है कि दूसरे के मस्तक पर छेदन करना अच्छा है, लेकिन चुगली करना अच्छा नहीं है।यह एक दोष भी उभयलोक को निष्फल करनेवाला है, अतः आराधक को अनेक दोष से युक्त पैशुन्य का मन से ही त्याग कर देना चाहिए।
मिथ्या दोषारोपण करनेवाला तथा पिशुनवृत्तिवाला दूसरों के दोषों को देखता है। उसकी दृष्टि छिद्रान्वेषी होती है। गम्भीरता के अभाव और संकीर्ण मनः-स्थिति होने के कारण ऐसे व्यक्ति में मैत्रीभाव एवं वाणी का विवेक नहीं होता है। विवेकशील व्यक्ति विचारपूर्वक वाणी का उपयोग करता है, किन्तु अज्ञ-पुरुष किसी की बात को उसके परिणाम का विचार किए बिना ही सबके समक्ष प्रकाशित कर देता है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में सुबन्धु और चाणक्य का कथानक उल्लेखित है। प्रस्तुत कथानक हमें व्यवहारवृत्ति (१०/५६२), निशीथचूर्णि (भाग-२, पृ.-३३), मरणसमाधि (गा. ४७८), प्राचीन आचार्यविरचित आराधनापताका (भाग २, पृ. ७२) एवं भगवतीआराधना (पृ. ८०५) आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है।
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