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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 399
'शायद किसी ने राजा की मर्यादा का अपमान किया है, किन्तु इस तरह मुझसे विमुख होने का क्या कारण हो सकता है'- ऐसा विचारकर चाणक्य घर चला आया। औत्पातिकी-बुद्धि से युक्त चाणक्य ने राजा के क्रोधित होने का कारण जान लिया। फिर उसने ऐसा विचार किया- 'मैं ऐसा कोई कार्य करूँ, जिससे उस व्यक्ति को लम्बे समय तक दुःख प्राप्त हो।' चाणक्य ने थोड़ा सुगन्धित चूर्ण तैयारकर उसे एक डिब्बे में डाल दिया, साथ में एक भोजपत्र पर यह लिखकर भी उस डिब्बे में रखा कि जो पुरुष इसे सूंघकर इन्द्रिय-विषयसुख का भोग करेगा, उसकी मृत्यु होगी, अथवा जो वस्त्र, आभूषण, आदि पर या स्नान तथा श्रृंगार करके इसका विलेपन करेगा, वह शीघ्र मर जाएगा। इसके बाद चाणक्य ने उस डिब्बे को एक सन्दूक में रखकर उसे कमरे में रखा और कमरे का दरवाजा बन्दकर उस पर बड़ा-सा ताला लगा दिया। तत्पश्चात् स्वजनों को जैन-धर्म में योजितकर स्वयं ने इंगिनीमरण, अर्थात् अनशन स्वीकार कर लिया।
इधर धायमाता राजा से कहने लगी- "हे राजन्! तेरे पिता से भी अधिक पूजनीय चाणक्य मन्त्री का तूने पराभव क्यों किया?" तब राजा द्वारा पुनः प्रश्न पूछने पर धायमाता ने कहा- "जब तू माँ के गर्भ में था, तब विषमिश्रित आहार का कौर खाते ही जहर से व्याकुल होकर तेरी माता मर गई, तब तुरन्त तुझे बचाने के लिए चाणक्य ने तेरी माता का पेट छुरी से चीरा और तुझे निकालकर बचाया। अगर उसने तुझे नहीं निकाला होता, तो आज तू इस दुनियाँ में नहीं होता। उस समय तेरे मस्तक पर विषबिन्दु लगने से निशान हो गया था, इसी से तेरा नाम बिन्दुसार रखा गया।" ऐसा सुनते ही राजा को अत्यन्त दुःख हुआ और वह तुरन्त आडम्बरसहित चाणक्य के पास गया। वहाँ उसने चाणक्य को उपले के ढेर (गोबर) के घर के ऊपर बैठा देखा। राजा ने उसे आदरपूर्वक नमस्कार किया। उसने अनेक बार क्षमायाचना की। फिर राजा ने महात्मा चाणक्य को नगर में पधारने और राज्य को सम्भालने के लिए कहा। उस समय चाणक्य ने कहा- "मैंने अनशन स्वीकार कर लिया है। अब मुझे किसी के प्रति राग-द्वेष नहीं है।" सुबन्धु की ही चालबाजी थी -ऐसा जानते हुए भी उसने राजा से कुछ नहीं कहा। सुबन्धु ने राजा से महात्मा की सेवा करने की आज्ञा मांगी। सुबन्धु राजा द्वारा आज्ञा प्राप्तकर धूप जलाकर उसके अंगारे उपले के ढेर पर डालने लगा, फिर भी चाणक्य शुद्धलेश्या में स्थित रहा। इससे वह अग्नि में जल गया और अन्त में मरकर वह देव बना। सुबन्धु मन्त्री उसके मरण का आनन्द मनाने लगा।
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