SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 424
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 386/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री अर्हन्नक की पत्नी और अर्हमित्र की कथा लोभ और आसक्तिजन्य को ही जिनेश्वर भगवान् ने राग कहा है। चाहे बिन्दुओं से समुद्र को भरा जा सकता हो, अथवा ईंधन से अग्नि को तृप्त किया जा सकता हो, किन्तु तृष्णा की पूर्ति सम्भव नहीं है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में अर्हन्त्रक की पत्नी और अर्हमित्र की कथा वर्णित है :- 784 श्री क्षिति प्रतिष्ठित नगर में अर्हन्नक और अर्हमित्र नामक परस्पर दृढ़ प्रेम वाले दो भाई रहते थे। एक दिन तीव्र कामासक्ति के कारण बड़े भाई की स्त्री छोटे भाई से भोग करने के लिए प्रार्थना करने लगी । देवर द्वारा बार-बार मना करने पर भी जब वह उसको विवश करने लगी, तब अर्हमित्र ने कहा- “भाभी आप तो मेरी माता के तुल्य हैं। आपको तो भैया से ही सन्तोष करना चाहिए। " उस दुष्ट स्त्री ने कामासक्त बनकर अपने पति को खत्म कर दिया और अर्हमित्र से कहने लगी- “मैंने आपके लिए आपके भाई को मार दिया है, फिर भी आप मुझे क्यों नहीं चाहते हो?" 'जब इस स्त्री ने मेरे भाई को मार दिया है, तो आगे इसका क्या भरोसा ?'- इस प्रकार चिन्तन करते हुए उसे वैराग्य हो गया और उसने भगवती-दीक्षा स्वीकार कर ली तथा साधुओं के साथ अन्यत्र विचरने लगा । अर्ह मित्र द्वारा दीक्षा ग्रहण कर लेने पर वह स्त्री आर्त्तध्यान के कारण मरकर कुतिया बनी। एक दिन अर्हमित्र मुनि विचरते हुए उसी गांव में पधारे, जहाँ वह कुतिया रहती थी। पूर्व स्नेहवश वह कुतिया भी उस मुनि के पास रहने लगी। दूर भगाने पर भी वह नहीं भागती थी । तब मुनि इसे उपसर्ग मानकर रात्रि में वहाँ से विहार करके अन्यत्र चले गए। वह कुतिया उनके वियोग में मरकर जंगल में वानरी के रूप में उत्पन्न हुई । एकदा मुनि विहार करते हुए उसी जंगल में पहुँचे। वहाँ उस वानरी ने मुनि को देखा और पूर्व प्रीतिवश उनसे लिपट गई। इसे देख सभी मुनियों ने मिलकर उन मुनि को महामुश्किल से उस बन्दरिया से छुड़ाया। तत्पश्चात् वे मुनि उससे बचने के लिए कहीं छिप गए। यहाँ भी उनके विरह को सहन न कर पाने से मरकर पुनः वह यक्षिणी बनी। तत्पश्चात् वह यक्षिणी भी अर्हमित्र को सताने का मौका देखने लगी । अन्य मुनिगण अर्हमित्र की हंसी उड़ाने लगे- “ अर्हमित्र! तुम धन्य हो ! तुम तो कुतिया और बन्दरी को भी अत्यन्त प्रिय लगते हो।" मुनियों द्वारा ऐसा कहने पर भी अर्हमित्र कषायरहित हो, समता में विचरने लगे। 784 संवेगरंगशाला, गाथा ६०६३-६१०६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy