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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 385 इसलिए यह करना योग्य नहीं है । महत्तरा की शिक्षा को मान्य नहीं करके वह अलग उपाश्रय में रहने लगी। वहाँ साध्वी के शरीर एवं वस्त्र को उज्ज्वल देखकर लोगों ने उसका नाम साध्वी पण्डरा आर्या रख दिया। वह अपनी मान-प्रतिष्ठा के लिए विद्याबल का प्रयोग करके लोगों को आकर्षित करने लगी । तदुपरान्त उसका विवेक जाग्रत हुआ और उसने गुरु के समक्ष अपने दुराचारों का प्रायश्चित्त करके अनशन स्वीकार कर लिया। शुभ - ध्यान में लीन रहते हुए भी अपनी पूजा और सत्कार के लिए वह मन्त्र का प्रयोग करने लगी। इससे लोग आकर्षित होने लगे। नगर के लोगों को हमेशा उसके पास आते-जाते देखकर गुरुजी ने कहा- "हे आर्या ! इस तरह बार-बार मन्त्र का प्रयोग करना संयम - जीवन में उचित नहीं है।” गुरुजी के शब्दों को सुनकर उसने मिथ्यादुष्कृत् (मिच्छामिदुक्कडं ) किया और कहा- “पुनः ऐसा नहीं करूँगी। आपकी ऐसी प्रेरणा मुझे बहुत अच्छी लगी। " कुछ दिनों बाद एकान्त में नहीं रह सकने के कारण उसने पुनः मन्त्र द्वारा लोगों को आकर्षित किया। गुरुजी ने पुनः उसका निषेध किया । माया से युक्त बनी वह कहने लगी- "हे भगवती ! मैं किसी भी विद्या का प्रयोग नहीं करती हूँ, किन्तु ये लोग स्वयमेव शाता पूछने आते हैं।" इस तरह उसने माया के अधीन बनकर आराधना का फल नष्ट कर दिया और अन्त समय में वह मरकर सौधर्मकल्प की देवी के रूप में उत्पन्न हुई। इस तरह इस कथा का सार यह है कि माया गुणों को समाप्त करनेवाली और दोषों को बढ़ानेवाली है। वह विवेकरूपी चन्द्रबिम्ब को गलानेवाले राहु ग्रह के समान है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का पालन लम्बे समय तक किया हो, परन्तु यह मायारहित न हो, तो वह सर्व को नष्ट करनेवाला होता है। मायावी मनुष्य सर्प के समान भयजनक दिखाई देता है । प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत हमें किसी भी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हुआ । Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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