________________
384 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
जाने के लिए पाँव उठाने लगा कि उसे केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इस प्रकार बाहुबली पूर्ण प्रतिज्ञा वाला बना ।
मान - लघुता - विनय गुण में अवरोधरूप है, सद्गति का बाधक है तथा दुर्गति का मार्ग है। जीवात्मा मान के कारण से अपने यश को समाप्त करता है और तिरस्कार का पात्र बनता है, इसलिए विवेकी पुरुष इहलोक और परलोक में दुःख देनेवाले मान का त्याग कर देता है ।
इस कथा के माध्यम से संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार कहता है- “जैसे-जैसे मनुष्य मान करता है, वैसे-वैसे वह अपने गुणों का नाश करता है। इस प्रकार क्रमशः गुणों के नाश होने से वह गुणरहित हो जाता है। गुणरहित मनुष्य उत्तम कुल, जाति में जन्मा हुआ होने पर भी गुण (प्रत्यंचा ) रहित धनुष के समान इच्छित प्रयोजन की सिद्धि नहीं कर सकता है, इसलिए स्व-पर उभय के हितों के घातक, विषम दुःख देनेवाले मानकषाय को विवेकी पुरुष सर्वथा त्याग देते हैं। " इस सम्बन्ध में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने बाहुबली का यह दृष्टान्त प्रतिपादित किया है। प्रस्तुत दृष्टान्त हमें आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ. १८०, २१०, २११ ), विशेषावश्यकभाष्य (गा. १७१४, १७२०, १७३०), कल्पसूत्रवृत्ति ( २३५), आचारांगवृत्ति (पृ. १३३), आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है ।
साध्वी पण्डरा आर्या की कथा
माया, अर्थात् कपटवृत्ति के कारण लोक में अविश्वास का जन्म होता है, किन्तु माया ( कपटवृत्ति) के त्याग से सरलता का गुण प्रकट होता है। संवेगरंगशाला में इस सम्बन्ध में साध्वी पण्डरा आर्या की कथा वर्णित की गई है:- 783
एक शहर में एक उत्तम श्रावक रहता था। उसकी एक पुत्री थी। उसे बचपन में ही जिन धर्म पर अटूट श्रद्धा थी, जिससे वह जिनप्रणीत कथन से संसार के स्वरूप को जानने लगी । कालान्तर में उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और उसने दीक्षा स्वीकार कर ली। वह अपनी गुरुजी महत्तरा के साथ रहकर संयम आराधना करने लगी, किन्तु वह मलपरीषह को सहन नहीं कर पाने के कारण शरीर तथा वस्त्र को स्वच्छ रखती थी। उसकी गुरुजी महत्तरा साध्वी उसे सदैव कहती थी कि ऐसा करने से साध्वी- जीवन ( संयम - जीवन ) में दोष लगता है,
783 संवेगरंगशाला, गाथा ६००६ - ६०१६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org