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372 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
- सास, बहू और पुत्री की कथा
संवेगरंगशाला के प्राणीवध-द्वार में श्वासोश्वास, आदि जैविक-शक्तियों का हनन करना, अथवा उन्हें वियोजित करना ही प्राणवध माना गया है। हिंसा नरक का द्वार है तथा धर्मध्यान को नष्ट करने में यह अग्नि के समान है। जीवदया के बिना सभी क्रियाएँ एवं व्रत-अनुष्ठान निरर्थक हैं। संवेगरंगशाला में हिंसा एवं अहिंसा के सन्दर्भ में सास-बहू और पुत्री का दृष्टान्त दिया गया है-76
शंखपुर नामक नगर में बल नाम का राजा था। उस नगर में अति माननीय सागरदत्त नाम का नगरसेठ था। उस सेठ की सम्पदा नामक स्त्री, मुनिचन्द्र नामक पुत्र, बन्धुमति नाम की पुत्री एवं थावर नामक नौकर था। सेठ कभी-कभी गोकुल में जाकर अपनी गायों के समूह को देख आता। गोकुल से प्रत्येक महीने घी, दूध लाता और दीन-दुःखियों को देता था। बन्धुमति भी जिनवाणी का श्रवणकर हिंसादि पापों का त्याग करके श्राविका बन गई थी।
एक दिन सागरदत्त सेठ की मृत्यु हो गई। राजा ने नगरसेठ के स्थान पर उसके पुत्र मुनिचन्द्र को नियुक्त किया। थावर नौकर पूर्व की तरह ही गृहकार्य करता था। एकदा कामाग्नि से पीड़ित बनी सम्पदा अपने नौकर थावर पर आसक्त हो गई और 'मुनिचन्द्र को मारकर थावर को अपने घर का मालिक बनाऊँ'- ऐसा सोचने लगी। इस प्रकार वह लज्जा को त्यागकर उसके साथ अपनी कामतृष्णा को बुझाने लगी और थावर से कहा- “हे भद्र! मुनिचन्द्र को मार दे
और घर का मालिक बनकर मेरे साथ भोगों को भोग।" उसने पूछा- “किस तरह मासँ?" तब सम्पदा ने बताया कि मैं तुझे और मुनिचन्द्र को गोकुल देखने भेजूंगी। तब तू उसे तलवार से मार देना।" यह बात बहिन बन्धुमति ने सुन ली और अपने भाई को बता दी।
दूसरे दिन माँ के कहने पर मुनिचन्द्र और थावर घोड़े पर बैठकर गोकुल की ओर चले। थावर मौका देखकर मुनिचन्द्र को मारने के लिए सोचने लगा, जबकि मुनिचन्द्र बन्थुमति के वचनानुसार अप्रमत्त बनकर चल रहा था। थावर ने एक बार मारने की कोशिश भी की, पर वह नाकामयाब रहा। समय पर दोनों गोकुल पहुँचे। वहाँ गोकुल के रक्षकों ने उनका आदर-सत्कार किया। थावर प्रतिसमय मुनिचन्द्र को मारने का मौका खोजता रहा। रात्रि में मुनिचन्द्र ने अपनी शय्या गाय, भैंस के बाड़े में लगाई, फिर अपनी शय्या पर एक बड़ी लकड़ी रखकर ऊपर से एक कपड़ा ढंक दिया, जिससे ऐसा प्रतीत होने लगा कि कोई
776 संवेगरंगशाला, गाथा ५६२६-५६७८.
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