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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /373 सोया हो और मुनिचन्द्र एक तरफ छुप गया। थोड़ी देर बाद थावर बाड़े में आया और मुनिचन्द्र को सोया जानकर तलवार से प्रहार करने लगा। उसी समय मुनिचन्द्र ने पीछे से थावर पर तलवार से वार किया, जिससे वह मर गया। इसके बाद मुनिचन्द्र ने पशुओं को बाहर लाकर छोड़ दिया और कहने लगा- "अरे भागो, चोरों ने गायों का हरण कर लिया तथा थावर को मार दिया है।" इससे लोगों ने उसकी बात को सत्य मान लिया। इधर, चिन्तातुर बनी माता थावर का इन्तजार कर रही थी। इतने में मुनिचन्द्र अकेला घर पहुंचा और तलवार रखकर आसन पर बैठ गया। शोकातुर माता ने पूछा- “हे पुत्र! थावर कहाँ है?" बेटे ने कहा- “माताजी, वो मन्दगति से पीछे आ रहा है।" माँ ने सामने खून से रंगी तलवार को देखा, तब उसने क्रोधाग्नि में जलते हुए उसी तलवार को उठाकर अन्य कार्य में एकचित्त बने मुनिचन्द्र का मस्तक शीघ्रता से काट दिया। अपने पति को मारते देखकर मुनिचन्द्र की पत्नी को तीव्र क्रोध उत्पन्न हुआ और उसने मूसल से प्रहार कर सास को मार दिया। जीव-हिंसा से वैरागी बनी बन्धुमति मन में शोक धारण कर एक स्थान पर बैठ गई। तुरन्त नगरजनों की भीड़ लग गई तथा लोगों ने बन्धुमति से पूछा"तुमने माता को मारनेवाली इस बहू को क्यों नहीं मारा?" तब बन्धुमति ने कहा"मुझे किसी जीव की हिंसा नहीं करने का प्रत्याख्यान है।" इससे लोग उसकी प्रशंसा करने लगे और बहू को धिक्कारने लगे। इधर घर की सम्पत्ति को राजसेवकों द्वारा राजभण्डार में डाल दिया गया तथा बहू को कैदखाने में बन्द कर दिया गया, परन्तु हिंसा के त्याग का नियम होने से लोगों ने बन्धुमति का बहुमान किया। . इस तरह कथा का सार यह है कि हिंसादि पाप-स्थानकों का त्यागकर प्रशमगुणवाली बन्धुमति सत्कार करने योग्य बनी। इसलिए जो जीवों को अभयदान देता है, उन पर दयाभाव रखता है, वही सच्चा दानवीर है। हिंसा सर्वथा त्याग करने योग्य है। जो हिंसा को छोड़ता है, वह दुर्गति को भी छोड़ देता है। जैसे लोहे का गोला पानी में गिरता है, तो सीधे नीचे स्थान पर जाता है, वैसे ही हिंसाजन्य पाप के भार से भारी बना जीव नीचे नरक में गिरता है। इस तरह प्राणीवध अनर्थ का कारण है, ऐसा समझना चाहिए। प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया किन्तु चूर्णिकाल तक हमें इस कथा का मूल स्रोत उपलब्ध नहीं हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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