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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 371
की निन्दा एवं गर्हा करने लगा। इस प्रकार पापों का मिथ्यादुष्कृत देते हुए मुनि को केवलज्ञान प्रकट हुआ। अपने निर्मल शुद्ध ज्ञान से जगत् प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा, जिससे वह शिष्य सम्यक् रूप से चलने लगा और गुरु के पैरों की स्खलना भी बन्द हो गई।
इस प्रकार रातभर चलते रहने के बाद जब प्रभात हुआ, तब शिष्य के मस्तक पर दण्ड के प्रहार से निकला हुआ खून और मस्तक पर लगी चोट को देखकर चण्डरुद्राचार्य ने विचार किया- 'अहो ! प्रथम दिन के दीक्षित इस नए मुनि की ऐसी क्षमा है और चिरकाल होने पर भी मेरा ऐसा आचरण है। क्षमा-गुण से रहित मेरे विवेक को धिक्कार है! मेरी श्रुतसम्पत्ति को धिक्कार है! मेरे आचार्य पद को भी धिक्कार है।' इस तरह संवेग प्राप्तकर शिष्य से बार-बार क्षमायाचना करते हुए चण्डरुद्राचार्य भी केवली बन गए। इस प्रकार क्षमायाचना करके एवं क्षमा प्रदान करके जीव अपने कर्म के समूह को नष्ट कर लेता है।
इस तरह पापी व्यक्ति भी शुद्ध भावपूर्वक सर्व जीवों से क्षमायाचना करके अपने कर्ममल को धो सकता है, अतः क्षपक मुनि को चन्दन - वृक्ष के सदृश अपकारी एवं उपकारी के प्रति समभाववाला होकर, सर्व जीवों से क्षमायाचना करके तथा उन्हें क्षमा प्रदान करके अन्तिम आराधना करना चाहिए। इस कथा में बताया गया है कि संस्तारक ग्रहण करने से पूर्व क्षपकमुनि को सर्व जीवराशि से अपने अपराधों की सम्यक् प्रकार से क्षमायाचना करना चाहिए। यदि सामनेवाला भी क्षमायाचना करता है, तो यह उभय पक्ष के लिए कल्याणकर होता है। यदि : अभिमान के वशीभूत हो सामनेवाला व्यक्ति क्षमायाचना नहीं करता है, तो भी समभाव से क्षमापना करनेवाले मुनि को तो निश्चय से लाभ होता ही है। इस प्रसंग में आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने चण्डरुद्राचार्य का दृष्टान्त प्रतिपादित किया है। प्रस्तुत कथानक हमें आवश्यकवृत्ति (पृ. ५६७), उत्तराध्ययनवृत्ति (पृ. ५०), उत्तराध्ययनचूर्णि-वृहत्कल्पभाष्य (६१०२ - ४ ) में उपलब्ध होता है।
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