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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 365 एक मुनि के दर्शन हुए। मुनि-दर्शन का पुनः-पुनः चिन्तन (ऊहापोह) होने से दोनों को जातिस्मरणज्ञान हुआ, जिससे दोनों विषयराग को त्यागकर पुनः दीक्षित हुए और शुद्ध आराधना करके अन्त में मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए। इस प्रकार सम्पूर्ण आलोचना के अभाव में शेष रहा हुआ अल्प अतिचार भी अकल्याणकारी और महाकष्टकारी होता है। आत्महितैषी जीव को शास्त्र में विहित विधि अनुसार उत्तम प्रकार से आत्मा की शुद्धि करना चाहिए। मुमुक्षु जीव इस सम्बन्ध में सतर्क रहते हैं। वे शुक्लध्यानरूपी अग्नि से समस्त कर्मों को जलाकर लोक के अग्रभाग में स्थित मुक्ति को प्राप्त करते हैं। संवेगरंगशाला में वर्णित प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत देखने का हमने प्रयास किया, किन्तु आगम एवं आगमिक-ग्रन्थों में इस कथा का मूल स्रोत हमें ज्ञात नहीं हुआ। दो तोतों की कथा आराधक के लिए आराधना के योग्य वसति होना चाहिए। अयोग्य वसति में रहने से क्षपकमुनि को अनुचित शब्दादि सुनकर या देखकर समाधि में व्याघात उत्पन्न होने का भय बना रहता है, क्योंकि सुन्दर भावों से युक्त बुद्धिमान् व्यक्ति की बुद्धि भी कुत्सित की संगति से बिगड़ जाती है। इसी कारण से, जहाँ साधना से विचलित होने की सम्भावना हो, ऐसे स्थान का निषेध किया गया है। तिर्यंच योनि वाले जीवों को भी अशुभ संसर्ग से दोष और शुभ संसर्ग से गुण प्रकट होते हैं। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में पर्वत पर रहनेवाले दो तोतों का दृष्टान्त उपलब्ध होता है।73 विन्ध्याचल पर्वत के समीप कादम्बरी नामक एक अटवी थी। अटवी में अनेक प्रकार के पुष्पों एवं फलों से युक्त वृक्षों के समूह सुशोभित थे। वहाँ एक बड़े वृक्ष के खोखर में एक तोती ने दो सुन्दर तोतों को जन्म दिया तथा उन्हें दानें खिलाकर उनका पोषण करते हुए इन दोनों को बड़ा किया। फिर एक दिन दोनों तोते उड़ने लगे, परन्तु पंखों की निर्बलता के कारण थककर अर्द्धमार्ग में ही नीचे गिर गए। उस समय एक तोते को एक तापस अपने आश्रम में ले गया तथा दूसरे को भिल्ल अपनी चोरपल्ली में ले गया। चोर की पल्ली में रहनेवाला तोता 773 "संवैगरंगशाला, गाथा ५२३३-५२५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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