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________________ 364 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री विषयजन्य सुख के अनर्थों को जानकर शीघ्र ही नरसुन्दर राजा के समान धर्म में अति आदरवाला बनता है। इस प्रकार धर्मोपदेश सुनाकर आचार्य ने कहा- "हे सूरतेज ! सर्व अशुभ प्रवृत्तियों को छोड़कर कोई ऐसी उत्तम प्रवृत्ति करो, जिससे तुम देवों से भी तेजस्वी कहलाने लगो । ” आचार्य के धर्मोपदेश को सुनकर राजा ने संवेग (वैराग्य) प्राप्त किया और रानी के साथ गुरु के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। छट्ठ, अट्ठम, आदि तप करते हुए, निरतिचारपूर्वक साधु-जीवन का पालन करते हुए अप्रमत्त-भाव में दोनों के दिन व्यतीत होने लगे। एक समय उन मुनि का हस्तिनापुर नगर में आगमन हुआ और वे उचित स्थान में चातुर्मास करने के लिए ठहरे। वह साध्वी भी उसी नगर में प्रासुक स्थान में चातुर्मास हेतु रुकी। अब उस नगर में जो वृत्तान्त बना, उसे यहाँ बताते हैं। विष्णु नाम के धनपति को दत्त नाम का एक पुत्र था। एक दिन वह नाटक देखने गया। वहाँ उसने एक नट - पुत्री को देखा और उसे उस पर राग उत्पन्न हो गया, जिससे वह सर्वप्रवृत्ति छोड़कर सिर्फ पागल के समान बैठा रहने लगा। पिता द्वारा अनेक उपाय करने पर भी जब वह ठीक नहीं हुआ, तब उसके पिता ने निर्लज्जतापूर्वक नट को धन, आदि दान में देकर नट - पुत्री के साथ उसका विवाह करवाया । 'अहो ! यह अकार्य किया'- यह लोकापवाद सर्वत्र फैल गया। मनुष्यों के मुख से परस्पर फैलती हुई वह बात सूरतेज मुनि ने सुनी और अल्परागवश एवं विस्मयपूर्वक उन्होंने कहा - " निश्चय ही राग पर विजय पाना कठिन है, अन्यथा उत्तम कुल में जन्म लेकर भी वह इस प्रकार का अकार्य क्यों करता?” उस समय वहाँ वन्दन के लिए वह साध्वी भी आई हुई थी। उस वृत्तान्त को सुनकर अल्पद्वेषवश उसने कहा - " कामान्ध के द्वारा अकार्य सम्भव है, इसमें निन्दा करने योग्य क्या है?" इस तरह परस्पर बात करने से मुनि को सूक्ष्मराग और साध्वी को सूक्ष्मद्वेष हुआ। इस कारण दोनों ने नीचगोत्र का बन्ध किया और प्रमादवश दोनों आलोचना किए बिना ही अन्त में मृत्यु को प्राप्त हुए और मरकर सौधर्म-देवलोक में उत्पन्न हुए । वहाँ से सूरतेज का जीव धनवान् वणिक् के घर पुत्ररूप में पैदा हुआ। साध्वी के जीव ने नट के घर पुत्री के रूप में जन्म लिया । यौवन - वय में सूरतेज के जीव को अन्य युवतियों में तथा नट- पुत्री को अन्य पुरुषों में रागबुद्धि उत्पन्न नहीं हुई। कालान्तर में दोनों का मिलाप हुआ। जैसे- पूर्व में दत्त के पिता ने नट को धन देकर उसका विवाह करवाया, वैसा ही वणिक्-पुत्र के पिता ने अपने पुत्र के लिए किया। वह लज्जा छोड़कर नटपुत्री के साथ घूमने लगा। एक समय उन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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