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________________ 366 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री हर समय भिल्लों के “मारो, काटो, तोड़ो, उसका माँस खाओ, खून पीओ'इत्यादि दुष्ट शब्दों को सुन-सुनकर अत्यन्त क्रूर मनवाला बन गया और दूसरा करुणा, प्रेम के अन्तःकरण वाले तापस मुनि के “जीवों को मत मारो, दुःखी प्राणियों के प्रति अनुकम्पा करो", इत्यादि-वचनों से अत्यन्त दयालु बना। एक समय किसी वृक्ष पर भिल्लों का तोता बैठा हुआ था। उस समय कनककेतु राजा को वहाँ आते देखकर पाप-विचारों से युक्त उस तोते ने कहा"अरे भिल्लों! दौड़ो, जाते हुए राजा को शीघ्र पकड़ो। उसके अलंकारों को शीघ्र लूट लो।" इसे सुनकर 'जिस प्रदेश में ऐसे दुष्ट पक्षी रहते हों, उस प्रदेश को दूर से ही त्याग देना चाहिए'- ऐसा सोचकर राजा वापस वहाँ से निकल गया और तापस के आश्रम के नजदीक पहुँचा। वहाँ तापस के तोते ने राजा को देखकर मधुर वाणी से कहा- "हे तापस मुनियों! एक राजा यहाँ आया है, इसलिए उसकी सेवाभक्ति करो, उचित विनय करो।" उस तोते के वचन सुनकर तापस आदरपूर्वक राजा को अपने आश्रम में ले गया। वहाँ भोजन, आदि से सत्कार किया। राजा ने आश्चर्य से तोते से पूछा- "तुम दोनों का तिर्यच जीवन होते हुए भी आचरण परस्पर विरुद्ध क्यों है?" तब तोते ने कहा- "हम दोनों के माता-पिता एक हैं, परन्तु अन्तर सिर्फ इतना है कि वह भिल्लों की पल्ली में पला और मैं तापसों के आश्रम में, इसलिए हमारे अन्दर संसर्गजन्य यह गुण-दोष प्रकट हुए हैं। यह आपने भी अभी देखा है।" इस तरह संसर्गवश तिर्यंचों में भी गुण-दोषभाव पैदा हो जाते हैं, तो अनशन की साधना में प्रयत्नशील बने तपस्वी में दुष्ट मनुष्यों के समीप रहने से स्वाध्याय में विघ्न, आदि क्यों नहीं हो सकते हैं? अर्थात् उनका भी पतन हो सकता है। कुशील व्यक्ति के समागम से समतावाला व्यक्ति भी कलुषित भाववाला बन सकता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। मनुष्यों से रहित एकान्त वसति में स्वाध्याय करने से मुनि को अध्ययन में विज नहीं होता है, इसलिए जहाँ मन में क्षोभ करने वाले पाँचों इंद्रियों के विषय न हो, वहाँ तीनों गुप्ति से गुप्त क्षपक मुनि शुभध्यान में स्थिर रह सकता है। संवेगरंगशाला में जो दो तोतों की कथा कही गई है, वह कथा हमें अन्य जैन-ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होती है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ग्रन्थकार ने यह कथा किसी अन्य ग्रन्थ से ग्रहण की हो और उसे अपने ढंग से विषय के अनुरूप परिमार्जित करके लिखा हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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