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2 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री है। जिनचन्द्रसूरि की संवेगरंगशाला नामक प्रस्तुत कृति वस्तुतः वैराग्यप्रधान कृति है। इस कृति का मुख्य प्रयोजन व्यक्ति को भोगासक्ति से ऊपर उठाकर त्याग और वैराग्य के मार्ग में प्रवृत्त करना है। इसी उद्देश्य से प्रस्तुत कृति में वैराग्यप्रधान उपदेशों और कथाओं को प्रस्तुत किया गया है। कृति का नामकरण 'संवेगरंगशाला' इस प्रयोजन से किया गया है कि वह वैराग्य का रंगमंच प्रस्तुत करती है।
__ संवेगरंगशाला मुख्यतः साधना या आराधनाप्रधान कृति है। इस कृति में लेखक ने साधना या आराधना को दो भागों में विभाजित किया है। प्रथम विभाग के अन्तर्गत उन्होंने गृहस्थ-जीवन और मुनि-जीवन की सामान्य आराधना-पद्धति का चित्रण किया है और उसके पश्चात् जीवन के अंतिम चरण में विशेष या अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना किस प्रकार की जाए, इसका उल्लेख किया है। यदि हम इस कृति की गम्भीरता पर विचार करते हैं, तो यह कृति मुख्य रूप से अन्तिम आराधना या समाधिमरण की साधना से ही सम्बन्धित प्रतीत होती है, फिर भी समाधिमरण की साधना की पूर्व भूमिका के रूप में इस कृति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की साधना का उल्लेख करते हुए सम्यक्-चारित्र की साधना के अन्तर्गत गृहस्थ-धर्म और मुनि-धर्म की सामान्य साधना विधि का संक्षिप्त चित्रण भी उपलब्ध होता है। अग्रिम अध्यायों में हमने सामान्य आराधना के रूप में गृहस्थ-धर्म और मुनि-धर्म का विवेचन प्रस्तुत किया है, फिर भी यह ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य समाधिमरण होने से हमने समाधिमरण का विवेचन अधिक विस्तार से किया है। यहाँ सर्वप्रथम हम कृतिकार के सम्बन्ध में विशेष रूप से चर्चा करेंगे । संवेगरंगशाला के रचनाकार जिनचन्द्रसूरि और उनकी गुरु-परम्परा :
संवेगरंगशाला के रचनाकार आचार्य जिनचन्द्रसरि हैं। खरतरगच्छ में जिनचन्द्रसूरि नाम से अनेक आचार्य हुए हैं। खरतरगच्छ में यह परम्परा भी रही है कि उसमें हर चौथे आचार्य को जिनचन्द्रसूरि कहा गया है। इस आधार पर यह कठिनाई उत्पन्न होती है कि प्रस्तुत कृति के कर्ता जिनचन्द्रसूरि कौनसे हैं? किन्तु, जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला की ग्रन्थप्रशस्ति में स्पष्ट रूप से इस समस्या का समाधान प्रस्तुत कर दिया है। ग्रन्थप्रशस्ति के अनुसार संवेगरंगशाला के रचनाकार जिनचन्द्रसूरि ने अपने को वर्धमानसूरि का प्रशिष्य, बुद्धिसागरसूरि का शिष्य तथा नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि का बड़ा गुरुभ्राता बताया है। जैन-धर्म की श्वेताम्बर-परम्परा को मान्य कोटिकगण की वज्रीशाखा के चन्द्रकुल में आचार्य वर्धमानसूरि हुए। वर्धमानसूरि के दो प्रमुख शिष्य - १. जिनेश्वरसूरि और २.
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