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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 3 बुद्धिसागरसूरि हुए। बुद्धिसागरसूरि के शिष्य संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि और नवांगीटीकाकार अभयदेवसूरि थे। इस प्रकार ग्रन्थ-प्रशस्ति के आधार पर यह सिद्ध होता है कि संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे,' किन्तु कहीं-कहीं उन्हें जिनेश्वरसूरि का शिष्य भी कहा गया है। वस्तुतः, जिनेश्वरसूरि बुद्धिसागरसूरि के बड़े गुरुभ्राता थे। दूसरे वर्धमानसूरि के बाद उनके पट्ट पर जिनेश्वरसूरि आसीन हुए थे, अतः आचार्य पद के धारक होने की अपेक्षा से जिनचन्द्रसूरि को जिनेश्वरसूरि का शिष्य भी कहा जाता है। यह तो सत्य है कि जिनचन्द्रसूरि ने आचार्य जिनेश्वरसूरि की परम्परा में ही दीक्षा ली थी, साथ ही यह भी सम्भव है कि उन्हें दीक्षा जिनेश्वरसूरि ने प्रदान की हो, अतः इस अपेक्षा से भी उन्हें जिनेश्वरसूरि का शिष्य भी माना जा सकता है, किन्तु ग्रन्थ-प्रशस्ति से यही सिद्ध होता है कि जिनचन्द्रसूरि जिनेश्वरसूरि के लघु गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे, साथ ही प्रशस्ति से यह भी सिद्ध होता है कि जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत कृति की रचना अभयदेवसूरि के आग्रह पर की थी। अतः, संवेगरंगशाला के कर्ता जिनचन्द्रसूरि, वर्धमानसूरि के प्रशिष्य एवं बुद्धिसागरसूरि के शिष्य थे। खरतरगच्छ परम्परा की अपेक्षा से वे प्रथम जिनचन्द्रसूरि हैं। जिनचन्द्रसूरि (प्रथम) का गृही जीवन : दुर्भाग्य से जिनचन्द्रसूरि के सांसारिक जीवन के बारे में कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं है, अतः जिनचन्द्रसूरि के माता-पिता कौन थे? वे किस नगर में उत्पन्न हुए थे, आदि के सम्बन्ध में कुछ भी कह पाना सम्भव नहीं है। ग्रन्थ की प्रशस्ति में यह उल्लेख है कि प्रस्तुत कृति की रचना छत्रावली नगर के पासनाग की बस्ती में विक्रम संवत् ११२५ में हुई थी और इस पुस्तक की प्रथम प्रतिलिपि जिनचन्द्रसूरि के शिष्य जिनदत्तगणि ने की थी। छत्रावली नगरी सम्भवतः वर्तमान छत्राल हो, जो उत्तर गुजरात में स्थित है। प्रशस्ति में यह भी कहा गया है कि प्रसन्नचन्द्रगणि की अभ्यर्थना पर संशोधित संवेगरंगशाला विक्रम संवत् १२०३ में बटवा नगर में ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्दशी गुरुवार को लिपिबद्ध की गई। बटवा सम्भवतः अहमदाबाद के निकट स्थित बटवा हो। ग्रन्थ प्रशस्ति में जिन नगरों का उल्लेख है, उससे यही सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ की रचना गुजरात में हुई है। ग्रन्थ का प्रारम्भ कच्छ-देश के वर्णन से होता है। लेखक ने कच्छ-देश का वर्णन बहुत ही मार्मिक रूप से किया है। इससे ऐसा लगता है कि कहीं उसका सम्बन्ध कच्छ-देश से तो नहीं रहा है। दूसरे, ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कच्छ देश के बाद श्रीमाल नाम की नगरी का उल्लेख है। उस नगर का वर्णन भी लेखक ने अत्यन्त 'संवेगरंगशाला १०३५-१०४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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