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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 1
अध्याय - १ कृति एवं कृतिकार का परिचय
संवेगरंगशाला की रचना का प्रयोजन :
प्राचीन भारतीय संस्कृति के मुख्य रूप से दो अंग हैं-१. वैदिक संस्कृति और २. श्रमण संस्कृति। वर्तमान हिन्दू धर्म मुख्यतः वैदिक संस्कृति का ही विकसित रूप है, जबकि वर्तमान बौद्ध धर्म और जैन धर्म श्रमण संस्कृति की ही शाखाएँ हैं। जहाँ वैदिक संस्कृति प्रवृत्तिपरक रही है, वहीं श्रमण संस्कृति निवृत्तिपरक है। श्रमण संस्कृति का बल तप और त्याग पर अधिक रहा है। वह आध्यात्मिक साधना प्रधान है। श्रमण संस्कृति में जीवन की दुःखमयता को बताते हुए निर्वाण या मुक्तिलाभ का संदेश दिया गया है। श्रमण संस्कृति का कहना है कि संसार दुःखमय है और जन्म-जरा और मृत्यु के चक्र से छुटकारा पाना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। व्यक्ति में रही हुई भोगाकांक्षा ही उसके दुःख और सांसारिक परिभ्रमण का मूल कारण है, अतः शान्तिमय और समाधिपूर्ण जीवन के लिए भोगों से विरक्ति आवश्यक है। व्यक्ति को भोगों से विरक्त होकर वैराग्यपूर्ण जीवन जीना चाहिए।
सामान्य रूप से सभी श्रमण धमों और विशेष रूप से जैन धर्म में वैराग्य को प्रधानता दी गई है। जैनधर्म के अनुसार राग और द्वेष ही बन्धन के कारण हैं। इनके कारण ही जीव संसार में परिभ्रमण करता है और परिणामस्वरूप जन्म-जरा और मृत्यु के दुःख से दुःखी होता है। इन दुःखों से विमुक्ति पाने के लिए राग-द्वेष या तृष्णा के चक्र का भेदन करना होगा। यह भेदन वैराग्य-भावना के द्वारा ही सम्भव हो सकता है। जैन परम्परा में वैराग्य के लिए संवेग और निर्वेद शब्दों का प्रयोग ही उपलब्ध होता है। संवेग का तात्पर्य है- इच्छा और आकांक्षाओं से उत्पन्न तनावों को दूर कर क्रोध, मान, माया, और लोभरूप कषायों के आवेग से मुक्त रहना। इस प्रकार संवेग शब्द वैराग्य का ही पर्यायवाची
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