SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 359 शंखपुर नगर में शिवभद्र नामक राजा राज्य करता था। राजा का मतिसार नामक पुरोहित राज्य-सुख के लिए राजा को निरन्तर यज्ञ कार्यों में लगाए रखता था। एक समय गुणशेखर आचार्य का अपने शिष्यों सहित नगर के बाहर उद्यान में पदार्पण हुआ। नगर में आचार्य का आगमन जानकर प्रजाजन उनके वन्दन हेतु जाने लगे। उसी मार्ग पर राजा और पुरोहित भी अश्वक्रीड़ा करने के लिए जा रहे थे। लोगों के कोलाहल को देखकर राजा ने पूछा- "क्या आज कोई महोत्सव है, जो सभी लोग श्रेष्ठ अलंकारों से सज्जित हो इस दिशा में जा रहे हो?" लोगों ने राजा को उसका रहस्य बताया। इससे आश्चर्यचकित बना राजा भी उस उद्यान में पहुंचा और आचार्य को वन्दन करके अपने योग्य स्थान पर बैठ गया। तत्पश्चात् आचार्य ने मेघ-गर्जन के समान गम्भीर वाणी से धर्मकथा प्रारम्भ की। आचार्य ने कहा- “हे राजन्! सर्व शास्त्रों का सारभूत एवं सर्व जीवों को सुखकर एक जीवदयारूपी धर्म ही प्रशंसा करने योग्य है। जैसे- रात्रि चन्द्रमा के बिना नहीं शोभती, वैसे ही तप और नियमों से युक्त होने पर भी धर्म दया के बिना लेशमात्र भी सुशोभित नहीं होता है। जो धर्म जीव-दया से रहित हो, उसे भयंकर सर्प के समान दूर से ही त्याग देना चाहिए।" आचार्य के प्रवचन श्रवण करने के पश्चात् राजा ने यज्ञ के पुरुषक पुरोहित को देखा। आचार्य पर अत्यन्त क्रोधित होते हुए पुरोहित ने कहा- "हे मुनिवर! तुम वेद एवं शास्त्रों के रहस्य से अनभिज्ञ हो, इसलिए हमारे यज्ञ की निन्दा करते हो।" आचार्य ने कहा- "हे भद्र! क्या तुम्हारे पूर्वरचित शास्त्रों में जीव-दया का उल्लेख नहीं है? क्या तुमने शास्त्र के उन वचनों को नहीं सुना, जिनके अनुसार हजारों गायों और सैकड़ों अश्वों का दान देनेवाला भी उस व्यक्ति की बराबरी नहीं कर सकता, जो सर्व प्राणियों को अभयदान देता है। एक व्यक्ति हजारों श्रेष्ठ गाय ब्राह्मणों को दान में दे और दूसरा एक जीव को जीवनदान दे, तो हजारों गायों का दान करनेवाला व्यक्ति उस अभयदानी की सोलहवीं कला के भी योग्य नहीं है। शास्त्रों के अनुसार यज्ञ और तीर्थों का स्नान भी तब तक फलदायक नहीं होता, जब तक उसमें प्राणियों के प्रति दया न हो। इस तरह हे महाशय! तुम अपने शास्त्रों के उन वचनों का स्मरण क्यों नहीं करते हो, जिनके अभाव में तत्त्वों को जाननेवाले होने पर भी तुम जीव-दया के महत्व को स्वीकार नहीं कर रहे हो।" आचार्य के उपदेशों को सुनकर पुरोहित उनसे द्वेष करने लगा तथा राजा भद्र परिणामवाला हुआ। उसके पश्चात् आचार्य ने भव्य जीवों को जिन कथित धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy