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________________ 358 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री एक दिन राजा रानी के साथ उद्यान में क्रीड़ा हेतु गया। वहाँ रानी ने अतिविश्वासी जितशत्रु नामक अपने पति को अत्यधिक मात्रा में मदिरा का पान कराया तथा बेहोशी की अवस्था आने पर उसे उठाकर गंगा नदी में फेंक दिया। यहाँ इस कथा का तात्पर्य यह है कि राजा ने अपना माँस खिलाकर तथा रक्त पिलाकर भी उसके प्राणों की रक्षा कर उसके शरीर का पोषण किया, लेकिन इतना करने पर भी उस कामुक स्त्री ने उपकार को भूलकर अपने ही पति की हत्या कर दी। निर्दयी स्त्री पुरुष को वाणी से वश में करती है और हृदय से नाश करती है। उसकी वाणी मधुर और हृदय विष के समान होता है। कहा गया है कि स्त्री स्वच्छन्द नदी, पाप की गुफा, कपट का घर, क्लेश करनेवाली और सुख की शत्रु होती है। 'एकान्त में मन विकारी बनता है'- इस भय से महापुरुष माता, बहन एवं पुत्री के साथ भी एकान्त में बात नहीं करते हैं। संवेगरंगशाला के परगणसंक्रमण-द्वार में गण परित्याग के पूर्व आचार्य अपने शिष्य-समुदाय को हितशिक्षा देते हुए स्त्री एवं साध्वी के संसर्ग से उत्पन्न होनेवाले दोषों का निरूपण करते हुए कहते हैं कि स्त्री-संसर्ग अग्नि के समान चारित्र को नष्ट कर देता है। प्रस्तुत सन्दर्भ में ग्रन्थकार ने सुकुमारिका की कथा वर्णित की है। प्रस्तुत कथानक हमें ज्ञाताधर्मकथा के द्रौपदी-अध्ययन एवं भगवतीसूत्र की वृत्ति (पृ.५१) आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। हरिदत्त मुनि की कथा निर्यापक-आचार्य, साधक की आराधना में किसी प्रकार का विघ्न उत्पन्न होगा या नहीं होगा-इसकी समीक्षा करे। आराधना में राज्य-राजादि से सम्बन्धित कोई विन आनेवाला तो नहीं है?-इसकी समीक्षा किए बिना निर्यापक-आचार्य द्वारा समाधिमरण करवाने पर हत्यादि के अनेक आरोप आ सकते हैं, इसलिए साधक के कल्याण तथा कुशलता के लिए राज्य में सुकालादि को देखकर, भविष्य में व्याघात तो नहीं होने वाला है-ऐसा जानकर ही समाधिमरण करवाना स्वीकार करे, अन्यथा राजा, आदि के विषय में सम्यक् विचार किए बिना अनशन-व्रत स्वीकार करने से हरिदत्त मुनि के समान आराधना में विघ्न भी आ सकता है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में हरिदत्तमुनि की निम्न कथा का उल्लेख मिलता है : 70 770 संवेगरंगशाला, गाथा ४७६३-४८४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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