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________________ सुकुमारिका की कथा पुष्पों की तरह सुकोमल अंगवाली स्त्रियाँ पुरुषों का मन मोह लेती हैं। अपने रूप - लावण्य से मोह उत्पन्न करनेवाली स्त्रियों का आलिंगन सर्प के विष की तरह व्यक्ति के विनाश का कारण होता है। इस सन्दर्भ में संवेगरंगशाला में सुकुमारिका की कथा वर्णित है - 7 769 बसन्तपुर नगर में जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था। उसकी अप्रतिम रूपवाली सुकुमारिका नाम की रानी थी। राजा को अपनी रानी पर अत्यधिक प्रेम था। राग में फंसा राजा अपने राज्य कार्य आदि भूलकर सतत काम-क्रीड़ा में समय व्यतीत करता था। उस समय राज्य का विनाश होते देखकर मन्त्रियों ने सहसा रानीसहित राजा को राज्य से निकाल दिया एवं राजकुमार का राज्याभिषेक कर दिया। जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 357 वे दोनों चलते-चलते एक दिन सुनसान जंगल में पहुँचे। अति परिश्रम के कारण तृषा से पीड़ित रानी ने पानी पीने की याचना की, तब आस-पास कहीं भी पानी नहीं होने पर 'रानी भयभीत न हो'- ऐसा विचारकर राजा ने रानी की आँखों पर पट्टी बांधकर अपनी भुजा का रक्त उसे पिलाया। जब वह क्षुधा से पीड़ित हुई तब राजा ने अपनी जंघा से मांस निकालकर उसे खिलाया । इस प्रकार से राजा ने रानी की भूख-प्यास को शान्त किया और स्वयं ने संरोहिणी-औषधि का सेवन कर अपने को स्वस्थ किया। उसके पश्चात् राजा-रानी पुनः चलकर जंगल को पार करते हुए किसी नगर में पहुँचे। नगर में आकर व्यापार हेतु राजा ने रानी के सर्व आभूषणों को बेच दिया और उस धन से सर्वकलाओं में कुशल वह राजा व्यापार करने लगा, लेकिन 'अब रानी को कहाँ रखूँ ?"- ऐसा सोचकर राजा ने एक पंगु आदमी को निर्विकारी जानकर रक्षण के लिए रानी के पास रख दिया। वह पंगु आदमी गीत-संगीत, आदि कलाओं में निपुण था। राजा प्रतिदिन व्यापार के कारण बाहर जाने लगा। इधर वह पंगु प्रतिदिन रानी को अपने मधुर कण्ठ से गीत सुनाता और कथा कहता। इस प्रकार उसने सुमधुर गीतों एवं कथा - कौशल, आदि से रानी को वश में कर लिया। रानी भी उसके मोह में मुग्ध बनकर अपने प्राणप्रिय पति से द्वेष करने लगी और एकदा मौका पाकर वह उसके साथ क्रीड़ा करने लगी काम-वासना में आसक्त बनी रानी को अब राजा शत्रुरूप लगने लगा। 769 संवेगरंगशाला, गाथा ४४२१-४४३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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