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________________ 356/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री. क्षमायाचना किए बिना मृत्यु को प्राप्त हुए। उस संक्लेश दोष से आचार्य मरकर उसी वन में अति क्रूर श्यामवर्ण के सर्प के रूप में उत्पन्न हुए। वह सर्प उस शिष्य के इर्द-गिर्द ही घूमने लगा। एक दिन जब मुनि (शिष्य) स्वाध्याय करने की इच्छा से बाहर जाने लगे, तब अपशकुन होने से स्थविरों ने उन्हें रोका। कुछ क्षण रूकने के पश्चात् जब वे पुनः चलने लगे, तब पुनः वैसा ही अपशकुन हुआ। उस समय स्थविरों ने विचार किया कि कुछ अमंगल होने की सम्भावना है, अतः हमें भी इनके साथ चलना चाहिए। ऐसा मानकर अन्य मुनि भी उनके साथ चले। सर्प ने स्थविरों के बीच अपने पूर्वभव के उस शिष्य को बैठा देखा और ईर्ष्यावश भंयकर क्रोध से आवेशित हो उसकी तरफ आने लगा। मुनियों ने सर्प को उसकी तरफ आते देख प्रयत्नपूर्वक उसे रोक दिया। कुछ समय पश्चात् वहाँ केवली भगवान् पधारे। स्थविरों ने विनयपूर्वक भगवान् को नमस्कार कर उनसे सर्ववृत्तान्त पूछा। भगवान् ने उनको उस सर्प का पूर्वभव सुनाया। इससे मुनि बोले- “अहो! प्रद्वेष का परिणाम इतना भयंकर है।" फिर पूछा- “भगवान! वैरभाव का उपशम किस प्रकार हो सकता है?" केवली भगवन्त ने कहा- उसके पास जाकर क्षमायाचना करो और उसको कहो कि वह भी क्षमापना करे। इससे उसे जाति-स्मरण-ज्ञान होगा और वह धर्मभावना से असूया का त्याग करेगा। स्थविरों ने उसी तरह किया। सर्प ने भी ईर्ष्या, आदि का त्याग किया और अन्त में अनशन, आदि क्रिया करके मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। इस तरह कथा का सार यह है कि वैर-परम्परा को उपशान्त करने हेतु अनशन के समय सविशेष क्षमापना करने से शुभगति की प्राप्ति होती है। क्षमापना करने से निःशल्यता का भाव, विनय-गुण, कर्म की लघुता, रागरूपी बन्धन का त्याग, आदि गुणों की प्राप्ति होती है। संवेगरंगशाला में प्रस्तुत कथा का मूल स्रोत ढूंढने का हमने प्रयास किया, किन्तु चूर्णिकाल तक इस कथा का मूल स्रोत हमें उपलब्ध नहीं हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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