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________________ 360 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री में स्थिर करके अन्यत्र विहार किया। अन्य अनेक क्षेत्रों में विचरण करने के पश्चात् आचार्य शिष्य-मण्डल के साथ पुनः उसी नगर में पधारे। एक दिन हरिदत्त नामक शिष्य ने काया और कषायों की संलेखना करके अनशन करने के लिए आचार्य को विनयपूर्वक वन्दन कर कहा- "हे भगवन्त! मैने संलेखना स्वीकार कर ली है, अब आप मुझ पर संसार-समुद्र को पार करने हेतु अनशन का प्रत्याख्यान कराने का अनुग्रह करें।" आचार्य ने अनशन के विषय में भविष्य में उत्पन्न होनेवाले विघ्न का विचार किए बिना ही शिष्य की याचना स्वीकार कर शीघ्र गण से आज्ञा लेकर शुभ मुहूर्त में उसे अनशन कराया। ___ हरिदत्त मुनि के अनशन की प्रसिद्धि नगर में फैली, जिसे सुनकर नगरजन उनके दर्शन एवं वन्दन हेतु आने लगे। इधर एक दिन राजा का बड़ा पुत्र बीमार हो गया। उसके रोग-निवारण हेतु अनेक उत्तम वैद्यों द्वारा चिकित्सा करवाई गई, किन्तु अंशमात्र भी पीड़ा शान्त नहीं हुई। इससे उदासीन हुआ राजा शोक करने लगा। उस समय मौका देखकर जैन-धर्म के द्वेषी उस पुरोहित ने राजा से कहा- “हे देव! जिस नगर में साधु बिना कारण आहार का त्याग कर मरते हों, उस नगर में सुख किस तरह हो सकता है।" ऐसा कहते हुए उसने अनशन में रहे साधु का वृत्तान्त राजा से कहा। इसे सुनकर राजा साधुओं पर क्रोधित हुआ। उसने राजपुरुषों को बुलाकर कहा- तुम ऐसा कार्य करो, जिससे सभी साधु इस नगरी को छोड़कर अन्यत्र चले जाएं। राजसेवकों ने राजा की आज्ञा आचार्य को सुनाई। उस समय प्रचण्ड विद्याबल से युक्त उस अनशनधारी मुनि ने जैनधर्म की अवहेलना होते देखकर आवेशपूर्वक कहा- “अरे! मूढ़ लोगों! तुम अपनी मर्यादा का उल्लघंन क्यों कर रहे हो? तुम नहीं जानते कि जहाँ मुनि जिनाज्ञा के अनुसार धर्माराधना करते हों, वहाँ अशिव, आदि उपद्रव तो स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। इसके पश्चात् भी यदि उपद्रव होता हो, तो यह सब अपने कर्मों का ही दोष है, अतः तुम साधुओं के प्रति रोष क्यों कर रहे हो।" राजपुरुषों ने कहा- "हे साधु। अधिक मत बोलो। यदि तुम्हें यहीं रहने की इच्छा है, तो स्वयमेव जाकर राजा को समझाओ।" । मुनि ने राजा को भी अनेक प्रकार से समझाया और अन्त में कहा"हे राजन्! तुम ऐसा मत समझना कि साधुजन हमारा कुछ भी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अति घिसने पर चन्दन भी अग्नि प्रकट करता है।" ऐसा कहने पर भी जब राजा ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा, तब मुनि ने 'यह दुष्ट है'- ऐसा मानकर विद्याबल से महल एवं स्तम्भ, आदि को चलित किया। ऐसा देखकर राजा भयभीत हुआ और मानपूर्वक साधु के पैरों में गिरकर विनती करने लगा- "हे भगवन्त! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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