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348 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
एक-एक तख्ता मिला और उसके सहारे संयोग से वे दोनों एक ही द्वीप पर पहुंचे।
विरह से व्याकुल बने दोनों का आपस में मिलन हुआ । नन्द को देखते ही सुन्दरी उससे लिपटकर खूब रोने लगी। तब नन्द सुन्दरी को जिनप्रणीत वचन द्वारा इस प्रकार समझाने लगा- “पूर्व में संचित पुण्य का क्षय होने पर देवेन्द्र भी दुःखी होता है । अतः, हे सुतनु ! वृक्ष और छाया के समान दुःख की परम्परा जिसके साथ ही परिभ्रमण करती है, उन जीवों को कर्मों के वश पड़ा जानना चाहिए।" ऐसे वचनों से सुन्दरी को समझाकर दोनों गांव की ओर चले। थोड़ी दूर चलकर सुन्दरी ने कहा- "हे नाथ! परिश्रम से थकी तृषातुर अब मैं एक कदम भी आगे चलने में असमर्थ हूँ।” नन्द ने उसे एक स्थान पर विश्राम करने को कहा और स्वयं जल लेने के लिए चला गया।
वह कुछ ही दूर गया कि दुर्भाग्यवश वहाँ उसने यम के समान मुख फाड़े हुए एक सिंह को अचानक देखा। सिंह के भय से भयभीत हुआ नन्द अन्तिम आराधना करना भूल गया। अन्तिम आराधनारहित उस नन्द को सिंह ने मार दिया। इस प्रकार बालमरण के दोष से वह उसी वन में बन्दररूप में उत्पन्न हुआ। सुन्दरी जंगल में बैठी हुई पूरा दिन पति की प्रतीक्षा करती रही। पति की प्रतीक्षा में सुन्दरी ने पूरा दिन व्यतीत किया। जब नन्द नहीं लौटा, तब 'किसी हिंसक पशु ने पति को मार दिया होगा' - ऐसा विचार करते ही वह जमीन पर मूर्च्छित होकर गिर गई। कुछ क्षण बाद सुगन्धित मन्द पवन के झोंकों से उसकी मूर्च्छा दूर हुई और वह उठकर जोर से रोने लगी। फिर जिनेश्वर परमात्मा एवं माता-पिता को याद करते हुए वह इस तरह कहने लगी- "हे पापी देव! धन, स्वजन और घर का नाश करने पर भी तुझे सन्तोष नहीं हुआ।”
उसी समय श्रीपुर नगर का प्रियंकर राजा अश्व-क्रीड़ा के लिए वहाँ आया। वहाँ उस सुन्दरी को देखकर विस्मित मन से राजा कहने लगा- “हे सुतनु ! तू कौन है? कहाँ से आई है ? और इस तरह क्यों रुदन कर रही है ?" सुन्दरी ने कहा- “हे महासात्विक ! संकटों की परम्परा में खड़ी मुझ दुखियारी की बातों को जानकर क्या करोगे।” “उत्तमकुल में जन्म लेनेवाली यह स्त्री अपना वृत्तान्त नहीं कहेगी' - ऐसा सोचकर राजा उसे शान्त कर अपने घर ले गया। वहाँ उसे भोजनादि कराया, फिर अनुरागवश राजा उसके मनोवांछित पूर्ण करने लगा।
एक दिन राजा ने सुन्दरी से कहा - "हे चन्द्रमुखी ! मन को उद्विग्न करने वाले पूर्व में बने वृत्तान्त को भूलकर, मेरे साथ इच्छानुसार विषयसुख का भोग कर। दीपक की ज्योति से जैसे मालती की माला सूख जाती है, वैसे ही शोक
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