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________________ 346 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री पास गया। वहाँ उसे एक चारण मुनि दिखाई दिए। उन्हें देखकर वह कहने लगा“हे भगवन्! सर्प के जहर से ग्रसित मुझे बचा लो, अब आप ही मेरे रक्षक हो । “ ऐसा कहकर वह मूच्छित होकर वहीं नीचे गिर पड़ा। उपकार की दृष्टि से मुनि सम्यक् आराधनापूर्वक मन्त्र - जापादि करने लगे, जिससे वह ( स्वयम्भूदत्त ) कुछ ही समय में स्वस्थ होता हुआ धीरे-धीरे उठने लगा, फिर उठकर मुनि को देखकर बोला- “हे भगवन्! आप मेरे जीवनदाता हैं एवं उपकारी हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ, जिससे मैं इस ऋण से मुक्त हो सकूं।" मुनि ने कहा- "यदि तू ऋणमुक्त होना चाहता है, तो निष्पाप प्रव्रज्या को स्वीकार कर।" उसने कहा- "हे भगवन्! मैं ऐसा ही करूँगा, परन्तु मुझे मेरे छोटे भाई के प्रति राग होने से मन उससे मिलने को बेताब हो रहा है। यदि एक बार उसे देख लूँ, तो फिर मैं दीक्षा शीघ्र स्वीकार कर लूगाँ।” मुनि ने कहा- “हे भद्र! यदि तू सर्प के जहर से मर जाता, तो किस तरह अपने छोटे भाई से मिलता ? अतः निरर्थक राग को छोड़ । " मुनि के ऐसा कहने से स्वयम्भूदत्त ने विनयपूर्वक प्रव्रज्या स्वीकार की, फिर विविध तपस्या करने लगा। दुःसह परीषह को सहन करता हुआ वह अपने गुरु के साथ विचरण करने लगा। अन्त में अपनी आयुष्य अल्प जानकर उसने अनशन स्वीकार कराने के लिए गुरु से कहा। इस पर गुरु उसे समझाने लगा- “हे मुने! पुण्यवान् व्यक्ति ही सविशेष आराधना कर सकता है। आराधक को स्वजन, उपधि, कुल और अधिक क्या, अपने शरीर के प्रति भी राग नहीं करना होता है, क्योंकि वह राग ही अनर्थों का मूल है। " गुरु की वाणी से दृढ़ बनकर स्वयम्भूदत्त मुनि ने अनशन स्वीकार किया, जिससे स्वयम्भूदत्त मुनि के दर्शन के लिए नगर के लोग आने लगे। पूर्व में बिछुड़ा हुआ उसका छोटा भाई भी सुगुप्त परिभ्रमण करता हुआ उस स्थान पर पहुँचा। जनसमूह को एक ही दिशा में जाते देखकर सुगुप्त ने लोगों से पूछा - "ये सभी लोग कहाँ जा रहे हैं?” किसी एक व्यक्ति ने उससे कहा“यहाँ प्रत्यक्ष सधर्म के भण्डाररूप एक मुनि ने अनशन किया है; उसी के दर्शन करने जा रहे हैं। " ऐसा सुनकर कौतूहलवश सुगुप्त भी वहाँ पहुँचा। वहाँ उसने मुनि के रूप में अपने भाई स्वयम्भूदत्त को देखा और जोर से रुदन करता हुआ कहने लगा- "हे भाई! कपटी साधुओं द्वारा तू किस तरह छला गया । तेरे वियोग से मेरा हृदय फटा जा रहा है।" स्वयम्भूदत्त को भाई पर किंचित् राग होने से उसने उसे अपने पास बुलाकर पूर्ण वृत्तान्त सुनाया। इससे अन्त समय में मुनि को सर्वार्थ सिद्धि - विमान की प्राप्ति के योग्य अध्यवसाय होने पर भी स्नेहरूपी दोष हुआ। इस कारण मरकर वह मुनि सौधर्म-देवलोक में मध्यम आयुष्यवाला देव बना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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