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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 331 यह सुनते ही पुण्यकर्म के योग से वृद्धा स्त्री के मन में भी शुभभाव उत्पन्न हुए, जिससे उसके मन में भी जिनपूजा करने की भावना पैदा हुई। अपनी दरिद्रावस्था का विचार करती हुई वह कहीं से कुछ पुष्प प्राप्त कर बढ़ते भावों से जिनपूजन हेतु समवसरण की तरफ जाने लगी, किन्तु चलते-चलते अत्यन्त थक जाने से (विशुद्ध भावनावाली) उस वृद्धा स्त्री ने अर्द्धमार्ग में ही प्राण त्याग दिए। उस समय परमात्म-पूजन की शुभभावनामात्र से उसने पुण्य का उपार्जन किया और मरकर सौधर्म-देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई। मार्ग में पड़ी उस वृद्धा स्त्री को मूर्च्छित जानकर नगरजन परमात्मा से पूछने लगे- "हे भगवन्! क्या मागे में पड़ी वह स्त्री जीवित है? अथवा मर गई है?" प्रभु ने कहा- “वह वृद्धा तो मर चुकी है, किन्तु उसका जीव देव बनकर अपने अवधिज्ञान से पूर्वभव को जानकर, परम भक्तिभाव से मुझे वन्दन करने के पश्चात् मेरे ही पास बैठा हुआ है।" लोगों ने आश्चर्य से पूछा- "हे भगवन! उसने ज्ञान, दान, तपादि सुकृत कुछ भी नहीं किए। फिर ऐसी देवऋद्धि किस तरह प्राप्त की।" जगद्गुरु ने लोगों के संशय को दूर करने के लिए उस वृद्धा की उच्च भावना का सारा वृत्तान्त कहा। पुनः, लोगों ने पूछा- "हे भगवन! जिसे जिनेश्वर के गुणों का अल्प भी ज्ञान नहीं है, वह जीव मात्र पूजा के भाव से कैसे देवलोक में उत्पन्न हो सकता है।" भगवान् ने कहा- "जिस प्रकार रोगी को मणि आदि रत्नों के गुणों का ज्ञान नहीं होने पर भी वह मणि रोगी के रोगों को नष्ट करती है, उसी तरह परमात्मा अनन्त गुणों से शोभित है-ऐसा नहीं जाननेवाला मनुष्य भी यदि परमात्मा की वन्दना, सत्कार एवं पूजा करता है, तो उसके अशुभकर्म नष्ट होते हैं। इसी कारण जिन-शासन में गृहस्थ उपासकों को परमात्मा की द्रव्यपूजा करने की अनुज्ञा दी गई है। जिनपूजा के अभाव में दर्शनशुद्धि नहीं हो सकती है। जिनपूजा मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली होने पर भी कई मूढ़. जीवों को इस चिन्तामणि-रत्न को प्राप्त करने की इच्छा नहीं होती है। इसीलिए, हे देवानप्रिय! यह कितने आश्चर्य का विषय है कि पूजादि करने के भाव मात्र से यह आत्मा शिवपद को प्राप्त कर सकती है। सर्वप्रथम उस वृद्धा का जीव देवभव के बाद श्रेष्ठ कुल में जन्म लेगा, वहाँ साधना करके वह पुनः देव होगा, फिर मनुष्यभव प्राप्त करेगा। इस तरह आठवें भव में वह कनकपुर नामक नगर में ध्वज नाम का राजा होगा। एक दिन वह इन्द्र-महोत्सव देखने जाएगा। वहाँ मेंढक को निगलते सर्प को, सर्प को निगलते कुररपक्षी को, कुररपक्षी को निगलते यम के समान अजगर को देखकर यह विचार करेगा कि पापी जीवों को बड़े अधिकारियों द्वारा, बड़े अधिकारियों को राजा द्वारा, राजा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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