SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 330 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री ब्राह्मणों को भोजन कराने का विचार आया और विचारों में उसने यह निर्णय किया कि राजा के गड़रियों से दूध मंगवाऊगाँ। यदि बार-बार विनयपूर्वक मांगने पर भी वे नहीं देंगे, तो अपना अपघात कर उन्हें ब्रह्महत्या का पाप दूंगा। ऐसा विचार कर कल्पना में ही जब बहुत समय तक मांगने पर भी गड़रिए ने दूध नहीं दिया, तब वास्तव में क्रोध के वशीभूत होकर वह कहने लगा- “राजा के गड़रिए को ब्रह्महत्या का पाप देने के निमित्त से मैं स्वयं की हत्या कर रहा हूँ।" ऐसा कहते हुए शस्त्र के एक ही प्रहार से उसने अपनी हत्या भी कर ली। इस प्रकार रौद्र-ध्यान के कारण वह मरकर नरक में गया। व्यक्ति अपनी ही मानसिक-कल्पनाओं के द्वारा अकृत्य करता है और नरक को प्राप्त होता है। वस्तुतः, जो व्यक्ति मनोकल्पना में जीता है, वह अन्त में दुःखी होता है, यही इस कथा का सार है। प्रस्तुत कथा किसी अन्य ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होती है। दुर्गता नारी की कथा यदि किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु हो जाए और तीर्थादि के दर्शन-पूजन की भावना मन में रह जाए, तब शुभध्यान मात्र से मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। इस सम्बन्ध में संवेगरंगशाला में दुर्गता नारी की कथा उपलब्ध होती है, वह इस प्रकार है-756 एक समय की बात है जब महावीर प्रभु काकंदीपुरी नगरी में पधारे। तब देवों ने वहाँ स्वर्ण-सिंहासन से युक्त मनोहर समवसरण की रचना की। उस सिंहासन पर प्रभु पूर्वाभिमुख करके विराजमान हुए। उसी समय देव, विद्याधर, राजा, आदि सभी प्रभु को वन्दन करने के लिए आने लगे। साथ ही नगर के प्रजाजन भी सुन्दर वस्त्रों से सज्जित होकर हाथों में धूप, चन्दन, पुष्प, आदि लेकर जिनपूजन एवं वन्दन करने हेतु क्रमशः जाने लगे। इस तरह लोगों को एकसाथ जाते हुए देखकर एक दरिद्र वृद्धा स्त्री ने लोगों से आश्चर्य से पूछा- "हे भद्र! आप सभी लोग एक ही दिशा में कहाँ जा रहे हो?" तब लोगों ने बताया कि वे सभी तीन लोक के नाथ श्री महावीर प्रभु का वन्दन, पूजन करने तथा धर्मोपदेश सुनने हेतु समवसरण पर जा रहे हैं। 756 संवेगरंगशाला, गाथा २०१०-२१३१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy