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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप /329 राजा एवं प्रजा- सभी उसका खूब सम्मान करने लगे। अतिसम्मान मिलने से तथा ऐश्वर्य एवं श्रुतमद से मदोन्मत्त होकर वह जगत् के लोगों को तृण के समान मानने लगा। एक दिन मित्रों के कहने पर वसुदत्त रात्रि में नट का नाटक देखने गया। वहाँ उसने नाटक के प्रारम्भ में एक युवती को विदूषक के साथ इस तरह बोलते हुए सुना- "हे सुभग! आज तेरे दर्शन प्राप्त होने से मुझे कूट पण्डित से छुटकारा मिला। आओ जब तक वह पण्डित अपना समय वहाँ त्यतीत कर रहा है, तब तक हम यहाँ क्रीड़ा कर लें और फिर अपने-अपने घर जाएं।" इस तरह उसकी स्नेहयुक्त वाणी को सुनकर उस पण्डित के मन में ऐसा विकल्प उत्पन्न हुआ कि यह मेरी ही पत्नी है, जो स्वयं तो पर पुरुष के साथ क्रीड़ा करती है और मुझे कूट पण्डित कहती है। मैं अभी जाकर इसे शिक्षा देता हूँ। ऐसा विचार कर तीव्र क्रोध के वशीभूत हुआ वह शीघ्र अपने घर पहुंचा। उस समय अपनी बहन को घर में प्रवेश करते हुए देखकर, यही मेरी पत्नी है-ऐसा मानकर उसे अपशब्द कहने लगा। अपशब्द सुनते ही बहन ने कहा- "भैय्या यह क्या बोल रहे हो? मैं कौन हूँ?" परन्त क्रोध के आवेश में आकर उसने अपनी बहन को भी नहीं पहचाना और लकड़ी से उसके मर्मस्थान पर प्रहार कर दिया, जिससे वह तुरन्त मर गई। मित्रों द्वारा रोके जाने पर वह उन पर भी गलत आरोप लगाने लगा और कहने लगा- “तुम सब मेरी दृष्टि से दूर चले जाओ।" इस प्रकार निर्दोष होते हुए भी तिरस्कारित होने से वे सब मित्र अपने-अपने घर चले गए। घर के बाहर अत्यधिक कोलाहल होने से तुरन्त उसकी पत्नी अन्दर से बाहर आई और जब वहाँ अपनी ननन्द की ऐसी हालत देखी, तो वह चिल्लाकर कहने लगी- "हे निर्लज्ज! हे निर्दयी! अपनी ही बहन को क्यों मारा? ऐसा अकार्य चाण्डाल भी नहीं करता है।" अति कुविकल्पों से घबराए हुए मनवाले उस वसुदत्त ने यह विचार किया कि मेरी पत्नी दुष्चरित्र वाली ही नहीं, शाकिनी भी है, जो मुझे व्यामूढ़ करके स्वयं तो यहाँ से हट गई और मेरी बहन को मार गई। इसी के छल से मैं अपनी बहन को पहचान नहीं पाया। इसी ने मुझे विभ्रमित कर मेरी बहन का नाश किया है। ऐसी कल्पना करते हुए उसने तलवार निकालकर अपनी पत्नी के दोनों ओंठ एवं नाक को काट दिया। " जब राजा ने रात्रि में घटित घटना का सारा वृत्तान्त सुना, तब उसने तुरन्त वसुदत्त को नगर से बाहर निकाल दिया। वहाँ से वसुदत्त वई देश में पहुँचा। वहाँ उसने अपने बुद्धिबल से तारापीठ के राजा को प्रसन्न किया और नौकरी प्राप्त कर वहीं रहने लगा। एक दिन उसके मन में सूर्यग्रहण के दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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