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328 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री भोग में फंसना अच्छा नहीं है। इनकी तो इच्छामात्र ही नरक का द्वार है। इस तरह विषय कषायों का त्याग करके मैं उत्तम साधुता को ग्रहण कर रहा हूँ।"
अनेक युक्तियों से परीक्षा करने के पश्चात् इन्द्र अति हर्ष से इस प्रकार राजर्षि की स्तुति करने लगा- "हे कषायजयी! हे मुनिवर्य! आप विजयी हों। पुत्र, परिवार, आदि का त्याग करनेवाले आप परम पूज्य हो, उत्तम हो। आप निश्चय से कर्मशत्रुओं को नष्ट करके तीन जगत् में विजय प्राप्तकर सिद्ध-अवस्था को प्राप्त करोगे।" इस प्रकार मुनि की स्तुति कर इन्द्र देवलोक में चला गया। संवेगरंगशाला में प्रस्तुत कथानक के माध्यम से यह कहा गया है कि समाधिमरण के साधक को सर्व वस्तुओं एवं स्वजनों के प्रति ममत्व-भाव का त्याग करना चाहिए तथा दूसरों के द्वारा उपेक्षा करने पर भी समाधिभाव में स्थिर हुए सुख का अनुभव करना चाहिए। इसी सन्दर्भ में इसमें नमि राजर्षि की कथा दी गई है। प्रस्तुत कथानक हमें उत्तराध्ययनसूत्र (अध्याय-६), आवश्यकचूर्णि (भाग १-७५), उत्तराध्ययनचूर्णि (पृ. ७७, १७७) एवं सूत्रकृतांगचूर्णि (पृ. १२०) में भी प्राप्त होता है। सर्वप्रथम इस कथानक के रचनाकार ने उत्तराध्ययन के नौवें अध्याय में जो वर्णित है, उससे ही इस कथा को उद्धृत किया हो।
मन की चंचलता पर वसुदत्त की कथा
संवेगरंगशाला में मन की चंचलता को स्पष्ट करने हेतु वसुदत्त की कथा प्रस्तुत की गई है।
उज्जैन नगर में सुरतेज नाम का राजा रहता था। उसके राज्य में सर्व-दर्शन को जाननेवाला सोमप्रभ नामक ब्राह्मण पुरोहित रहता था। अपने सद्व्यवहार से वह सबका प्रिय था। सोमप्रभ को वसुदत्त नाम का पुत्र था, जो पढ़ा-लिखा नहीं था, अतः राजा ने सोमप्रभ के स्थान पर अन्य को पुरोहित के पद पर स्थापित किया।
अपना पराभव होता जानकर वसुदत्त को अत्यन्त खेद हुआ और उज्जैन से निकलकर अध्ययन हेतु वह पाटलीपुत्र चला गया। कुछ काल पश्चात् सर्व विद्याओं का अध्ययन कर इच्छित कार्य को सिद्ध करने के लिए वह उज्जैन पहुँचा। यहाँ आकर वसुदत्त ने अपनी विद्या द्वारा राजा को प्रसन्न किया, जिससे
755 संवेगरंगशाला, गाथा १६८३-२०४२.
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