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________________ 332 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री यमराज द्वारा दण्डित किया जाता है, इसलिए मानवीय-भोगों को भोगने की इच्छा करना भी मूढ़ता है- ऐसा चिन्तन कर राज्य तथा प्रजाजनों को त्यागकर वह साधु बन जाएगा और सर्वकों को समाप्त करके शिवपद को प्राप्त करेगा।" इस प्रकार अरिहन्त भगवान् की पूजा करने की भावनामात्र भी मोक्षदायी बन सकती है। संवेगरंगशाला में वर्णित प्रस्तुत कथा का उल्लेख हमें जैन-आगम-ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता है। वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा संवेगरंगशाला में वसतिदान के सम्बन्ध में कुरुचन्द्र की कथा वर्णित है। कुरुचन्द्र द्वारा बिना इच्छा के भी साधुओं को वसति देने से तथा प्रतिदिन साधुओं के दर्शन से, उनके प्रति प्रशस्त-रागभाव होने से कालान्तर में उसे जाति-स्मरण-ज्ञान प्राप्त हुआ और वह स्वयमेव प्रतिबोधित हुआ, जिसकी कथा इस प्रकार वर्णित है-757 श्रावस्ती नगरी में आदिवराह नाम का राजा रहता था। उसके ताराचन्द्र नाम का पुत्र था। ताराचन्द्र का एक मित्र था, जिसका नाम कुरुचन्द्र था। राजा अपने अन्य कुमारों में ताराचन्द्र को युवराज-पद के लिए श्रेष्ठ मानता था, इस कारण ताराचन्द्र की सौतेली माँ अपने पुत्र के राज्य-प्राप्ति में ताराचन्द्र को विघ्नरूप मानने लगी और उसने ताराचन्द्र को गुप्त रूप से भोजन में विष मिलाकर खिला दिया। उस भोजन के विकार से ताराचन्द्र को महाव्याधि उत्पन्न हुई तथा उसका रूप, बल और शरीर-सब नष्ट होने लगा। व्याधि से ग्रस्त बना ताराचन्द्र सोचने लगा- अब यहाँ रहना उचित नहीं है और ऐसा सोचकर वह अकेला ही वहाँ से चल दिया। चलते -चलते वह सम्मेत नामक महापर्वत के नजदीक एक शहर में पहुंचा। वहाँ के लोगों द्वारा पर्वत की महिमा सुनकर दर्शन करने की भावना से वह ऊपर चढ़ा। ऊपर उसने सभी जिन-प्रतिमाओं की पूजा तथा शुद्ध भावना से स्तुति की। मन में प्रसन्न हुआ वह जर्जरित शरीर का त्याग करने के लिए जब दूसरे ऊँचे पर्वत पर चढ़ने लगा, तब वहाँ उसने कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े साधु को देखा। मरने से पहले 'मुनि को नमस्कार कर लूं'- ऐसा विचार कर ताराचन्द्र ने मुनि को नमस्कार किया। उसी समय आकाश-मार्ग से एक विद्याधर युगल नीचे आया और हर्षित मन से मुनि को नमस्कार कर उनके गुणों की स्तुति करने लगा। 757 संवेगरंगशाला, गाथा २३११-२४८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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