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________________ चिलातीपुत्र की कथा संवेगरंगशाला में आराधक की अर्हता बताते हुए उस प्रसंग में चिलातीपुत्र की कथा प्रस्तुत की गई है 1 750 पृथ्वी प्रतिष्ठित नगर में पण्डित यज्ञदेव नाम का एक अभिमानी ब्राह्मण रहता था। एक दिन किसी विद्वान् मुनि ने उसे वाद में पराजित करके दीक्षा दे दी, परन्तु पत्नी से गाढ़ प्रेम होने से उसे दीक्षा त्यागने की इच्छा उत्पन्न हुई। तब देवी ने उसे निषेध किया। इससे वह धर्म में तो निश्चल बना, किन्तु शरीर एवं वस्त्र पर मैल जम जाने पर वह मन में घृणा करता रहा। एक दिन वह मुनि अपनी पत्नी द्वारा दिए गए दूषित आहार को ग्रहणकर मृत्यु को प्राप्त हुआ और मरकर देव बना। पति ( मुनि) की मृत्यु के पश्चात् विरक्त होकर पत्नी ने भी दीक्षा ले ली, लेकिन वह भी बिना आलोचना किए मृत्यु को प्राप्त हुई और मरकर देवलोक में उत्पन्न हुई। जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 317 साधुत्व से घृणा करने के कारण यज्ञदेव का वह जीव स्वर्ग से च्युत होकर धनसार्थवाह की चिलाती नामक दासी का पुत्र बना, इसलिए वह चिलातीपुत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ । यज्ञदेव की पत्नी भी धनसार्थवाह के पाँच पुत्रों के बाद सुषमा नाम की पुत्री के रूप में पैदा हुई। उस पुत्री की देखभाल चिलातीपुत्र करता था। बड़ा होने पर अति उद्दण्डता करने से सार्थवाह ने चिलातीपुत्र को घर से निकाल दिया। इस तरह वह घूमता फिरता एक पल्ली में गया। वहाँ के लोगों ने उसे पल्लीपति बना दिया। एक समय वह चोरों के साथ राजगृह नगरी में गया। वहाँ के लोगों को अवस्वापिनी - निद्रा देकर उसने धनसार्थवाह के घर में प्रवेश किया। तब चोरों ने वहाँ से धन लूटा और चिलातीपुत्र सुषमा को लेकर जल्दी ही अन्य स्थान को चला गया। सूर्योदय होते ही पिता अपने पुत्र और सुभटों सहित पुत्री की खोज में निकला। उन्हें आते देख चोर भय से धन छोड़कर भाग गए और सुभट लोग धन को लेकर चले गए। सार्थवाह और उसके पांचों पुत्र जैसे ही चिलातीपुत्र के पास पहुँचे, वैसे ही उसने 'मेरी नहीं तो यह सुषमा किसी की भी न हो' - ऐसा सोचकर उसका गला काट दिया और उसके मस्तक को लेकर भाग गया। आगे जंगल में उसने मुनि को देखकर कहा- “ अहो महामुनि मुझे संक्षेप में धर्म 750 संवेगरंगशाला, गाथा ११३१-११६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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