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________________ 316 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री तीव्र इच्छा है, अतः आप कहिए ।" जगत्प्रभु ने उसे हितकर जानकर रुद्र नामक क्षुल्लक साधु से लेकर उसके पूर्व के सारे भवों का वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहा । उसे सुनकर गुणाकर गाढ़ पश्चाताप करते हुए बोला- “ इस महापाप का प्रायश्चित्त क्या होगा?" जगत्प्रभु ने कहा - " आदरपूर्वक साधुजनों की सेवा करने से इन पापों से छुटकारा मिलेगा।” उसी समय गुणाकर ने पाँच सौ साधुओं को वन्दन करने का अभिग्रह लिया। इस तरह छः महीने तक अभिग्रह का पालन कर, अन्त में संलेखनापूर्वक मरकर पांचवे ब्रह्मदेवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ भी अवधिज्ञान से भूतकाल का वृत्तान्त जानकर उसने तीर्थंकर और साधुओं को वन्दन करते हुए देवभव पूर्ण किया । वहाँ से च्यवकर चन्द्रराजा का पुत्र हुआ। उसका नाम प्रियसाधु रखा गया । युवावस्था में संयम ग्रहण कर तपस्वी साधुओं की सेवा करके अन्त में जीवनपर्यन्त संलेखना करके अनुक्रम से सहस्रार आदि देवलोक के सुखों का अनुभव करते हुए अन्त में सर्वार्थसिद्ध - विमान में सर्वोत्कृष्ट सुखों को भोगकर, यहाँ मनुष्य जन्म प्राप्तकर दीक्षा अंगीकार की, फिर मोहरूपी योद्धाओं को परास्त करके, कर्मों के समूह को समाप्त कर उज्ज्वल शिवपुर को प्राप्त किया। इस तरह इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि जो प्रत्येक जन्म में श्रेष्ठ साधु - जीवन का पालन करते हुए मुनि की सेवा करता है, वह आराधना के द्वारा मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर सकता है। इस कथानक के माध्यम से यह बताया गया है कि पूर्व में शुभयोग के अभ्यास बिना वह मुनि उग्र परीषह के संकटों से युक्त मृत्युकाल में आराधना की निर्मल विधि को प्राप्त नहीं कर सकता है; क्योंकि निपुण अभ्यासी भी अत्यन्त प्रमादी होने के कारण स्वकार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है, तो वह मृत्यु के समय कैसे सिद्ध कर सकेगा? इस विषय में संवेगरंगशाला में संयम से भ्रष्ट हुए क्षुल्लकमुनि का उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। यही दृष्टान्त हमें आवश्यकचूर्णि ( भाग - २, पृ. १६१), आवश्यकवृत्ति (पृ. ७०१ ) में भी इसी रूप में उपलब्ध होता है। इससे यह फलित होता है कि आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने प्रस्तुत दृष्टान्त इन्हीं प्राचीन ग्रन्थों से ग्रहण किया होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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