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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 315 क्षुल्लक मुनि की कथा संवेगरंगशाला में आराधना-विराधना के विषय में क्षुल्लकमुनि की कथा का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है।749 ज्ञानादि गुणरूपी रत्नों के भण्डाररूप श्री धर्मघोषसूरिश्वरजी महाराज अपने निर्मल गुण वाले पाँच सौ मुनि-मण्डल के साथ महीमण्डल नगर के उद्यान में पधारे। उन शिष्यों में दुराचार और क्रूरमतिवाला एक रुद्र नाम का क्षल्लक साधु था। अन्य साधु द्वारा मधुर शब्दों से समझाने पर भी क्षुल्लकमुनि अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों का त्याग नहीं करता था, तब आचार्य ने उसे कठोर शब्दों में कहा- "हे दुःशिक्षित! हे दुष्टाशय! यदि अब दुष्ट प्रवृत्ति करेगा, तो तुझे गच्छ से बाहर निकाल दिया जाएगा।" इस प्रकार सुनकर उस रुद्र नामक क्षुल्लक ने रोष में आकर सभी मुनियों को मारने की इच्छा से साधुओं के पीने के पानी में जहर मिला दिया। जैसे ही सभी साधु पानी पीने लगे, तभी उनके चारित्र, आदि गुणों से प्रसन्न होकर देवी प्रकट हुई। देवी ने सबको पानी पीने से रोका और कहा कि इसमें दुष्ट शिष्य ने जहर मिलाया है। इस प्रकार जानकर उन सभी ने उस पानी का और उस दुष्ट शिष्य का त्याग किया। साधुओं को मारने के अध्यवसाय से दुष्ट शिष्य ने भयंकर पाप का उपार्जन किया तथा उसी जन्म में तीव्र रोग से ग्रसित बना। आर्त, रौद्र-ध्यान से मरकर उसने अनुक्रम से सातों नरक के उत्कृष्ट आयुष्य का बन्धन किया तथा बीच-बीच में तुच्छ एवं निन्दनीय तिर्यंच योनियों की आयु का भी बन्ध किया। इस प्रकार चौरासी लाख योनियों में अनन्तकाल तक अनन्तभवों में भ्रमण करते हुए महादुःखों को सहनकर बार-बार मृत्यु के मुख में गया। क्षुल्लकमुनि के जीव ने अनेक जन्मों तक दुःखों को सहन किया, तत्पश्चात् पापकर्म के अल्प होने एवं कषायों के कम होने पर चम्पापुर नगर में वैश्रमण सेठ के यहाँ पुत्ररूप में जन्म लिया, जिसका 'गुणाकर' नामकरण किया गया। चम्पापुर नगर में एक दिन तीर्थकर परमात्मा पधारे। उनके उपदेश से अनेक लोगों ने विरतिधर्म ग्रहण किया और अनेक लोग प्रतिबोधित होकर मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यक्त्व को प्राप्त हुए। सेठपुत्र गुणाकर ने भी जगत्प्रभु को नमस्कार करके कहा- "हे भगवन्! पूर्वजन्म मे मैं कौन था? इसे जानने की मेरी 749 सविगरंगशाला, गाथा ७४८-७९७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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