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318 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री समझाओ, अन्यथा मैं तुम्हारा भी मस्तक कबीटफल के समान काट दूंगा।" निर्भीक मुनि ने एक क्षण विचार कर 'उपकार होनेवाला है'- ऐसा जानकर तुरन्त कहा"उपशम, विवेक और संवर-इन तीन पदों में ही धर्म का सर्वस्व है।" चिलातीपुत्र इन पदों को धारणकर एकान्त में सम्यक् रूप से चिन्तन करने लगा- 'क्रोधादिक कषायों का उपशम क्षमा, नम्रता आदि गुणों का सेवन करने से हो सकता है। अब तलवार और मस्तक से क्या लाभ? ऐसा विचार करना विवेक है एवं मन और इन्द्रिय के विषयों की निवृत्ति ही संवर है।' इस प्रकार वह बार-बार तीनों पदों का चिन्तन करता हुआ उसकी गहराई में डूब गया और वहीं मेरुपर्वत के समान निश्चल कायोत्सर्ग-ध्यान में खड़ा हो गया।
उसके शरीर पर लगे खून की दुर्गन्ध से असंख्य चीटियाँ आकर चारों ओर से उसका भक्षण करने लगीं तथा उसके शरीर को छलनी कर दिया। इस तरह ढाई दिन तक घोर कष्ट को समभावपूर्वक सहनकर उत्तम चारित्रवाले उस महात्मा ने सहस्त्रार नाम के आठवें देवलोक का सुख प्राप्त किया।
इस प्रकार अत्यन्त उग्र मन, वचन और काया द्वारा पाप करनेवाला नरक का अधिकारी भी आराधना के द्वारा स्वर्ग-सुख का अधिकारी बन सकता है। इस प्रकार संवेगरंगशाला में सामान्यतः वैराग्यगर्भित (संवेगयुक्त) जीवों को समाधिमरण की आराधना के योग्य बताते हुए इस सन्दर्भ में चिलातीपुत्र की कथा प्रस्तुत की गई है। आचार्य जिनचन्द्रसूरि द्वारा रचित संवेगरंगशाला में वर्णित यह कथा हमें - आवश्यकचूर्णि (भाग १, पृ. ४६७-६८), आचारांगचूर्णि (पृ. १३६), आवश्यकनियुक्ति (गा. ७३), व्यवहारसूत्रभाष्य (१०-५६४), ज्ञाताधर्मकथा (गा. १३६-४०), संस्तारक (गा.८६), जीतकल्पभाष्य (गा. ५३२), विशेषावश्यकभाष्य (गा. ३३४१-४४) आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होती है।
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