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308/साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
३. सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति - केवली को सूक्ष्म काययोग का निरोध करते समय तीसरा सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति ध्यान होता है।
४. अक्रिया (व्युच्छिन्न-क्रिया) - अप्रतिपात्ति, यह चौथा ध्यान है, यह ध्यान योग-निरोध के बाद शैलेशीकरण में होता है।
___ इस तरह ध्यान के स्वरूप को बताकर निर्यापक आचार्य क्षपकमुनि को कहते हैं- विषय-कषायों को जीतनेवाले, मोहरूपी शत्रु का नाश करनेवाले तथा संस्गररूपी वृक्ष को मूल से काटनेवाले हे क्षपकमुनि! इस समय तुझे अपनी कुशल बुद्धि के द्वारा दुःखों के महाभण्डार सदृश आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान को जानकर उनका त्याग करना चाहिए एवं क्लेशों को नष्ट करने में वीर पुरुष की तरह धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान का ही ध्यान (चिन्तन) करना चाहिए। परीषहों एवं उपसर्गों से पीड़ित होने पर भी तू आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान-इन दोनों दुान का चिन्तन कभी मत करना, क्योंकि इन अशुभ ध्यान से आत्मा-विशुद्धि का नाश होता है।
शस्त्ररहित सुभट के समान ध्यानरहित क्षपक भी कर्मों को जीत नहीं सकता है। इसी प्रकार ध्यान करते हुए क्षपक जब बोलने में असमर्थ होता है, तब वह इंगित द्वारा अपनी बात कहता है, और निर्यापक उसके द्वारा किए गए इंगित से उसके मन की इच्छा को जान जाता है। इस प्रकार समता को प्राप्त करके प्रशस्तभावना तथा धर्म एवं शुक्लध्यानपूर्वक लेश्या की विशुद्धता को प्राप्त करके वह क्षपकमुनि गुणश्रेणी का आरोहण करता है।41
आराधनापताका742 एवं भगवतीआराधना743 में भी ध्यान के सन्दर्भ में यही उल्लेख प्राप्त होता है। उनमें भी ध्यान के चार भेदों का निरूपण किया गया है तथा कहा गया है कि ध्यान की सहायता से ही क्षपक कषायों का नाश करता है, क्योंकि कषायों के संहार (नाश) करने में ध्यान आयुध का कार्य करता है। ध्यान द्वारा समस्त कषायों का नाश करके क्षपक भक्तप्रत्याख्यान करने को तत्पर होता है और जब वह बोलने में असमर्थ हो जाता है, तब अपनी बातों को वह इशारे से बताता है, जैसे- हाथों की अंजुलि बनाकर, भौ में गति देकर, मुट्ठी बनाकर या सिर हिलाकर, आदि। इसमें आचार्य को यह ज्ञान हो जाता है कि क्षपक अपनी समाधिमरण की प्रक्रिया में रत है।
741 विमरंगशाला, गाथा ६६३३-६६६४.
आराधनापताका, ८०३-८३५. भगवतीआराधना, गाथा ७५३.
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