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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 307 ४. संस्थानविचय - धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के स्वरूप का तथा लोक के अधोलोक, उर्ध्वलोक एवं तिर्यक्लोक, आदि विभागों का चिन्तन करना संस्थानविचय-धर्मध्यान है। इसी प्रकार शरीर के स्वरूप का चिन्तन करना भी संस्थानविचय है। बारह भावनाओं का चिन्तन, मनन करते हुए धर्म-ध्यान पूर्ण कर क्षपक शुक्लध्यान में आरूढ़ होता है। ४. शुक्लध्यान : आत्मस्वरूप में रमण करना शुक्लध्यान कहलाता है। पर-परिणति से हटकर स्वभाव में आना, वही शुक्लध्यान है। यह रागादि कषायों से रहित होता है, इसलिए शुक्लध्यानवाली आत्मा ज्ञाता दृष्टा भावरूप अप्रमत्तावस्था में रहती है। शुक्लध्यान के चार भेद इस प्रकार हैं - १. पृथक्त्ववितर्क-सविचार २. एकत्ववितर्क-अविचार ३. सूक्ष्म-क्रिया-अनिवृत्ति ४. व्युच्छिन्नक्रिया-अप्रतिपत्ति । १. पृथक्त्ववितर्क-सविचार - संवेगरंगशाला में प्रथम शुक्लध्यान का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यहाँ पृथक्त्व का अर्थ विस्तारपूर्वक समझना चाहिए। जड़, चेतन, आदि किसी भी एक द्रव्य में उत्पत्ति, विनाश, रूपी, अरूपी, आदि विविध पर्यायों का विस्तारपूर्वक नय-निक्षेपों द्वारा विचार करना पृथक्त्व कहलाता है। वितर्क, अर्थात् पूर्वगत श्रुत के कथन-अनुसार चिन्तन करना। इसका अर्थ यह भी है- अर्थ से व्यंजन में और व्यंजन से अर्थ में संक्रमण करना, यही चिन्तनवितर्क कहलाता है। अर्थ एवं व्यंजन का भावार्थ बताते हुए कहा गया है कि द्रव्य या पदार्थ को अर्थ कहते हैं और अक्षरों को व्यंजन कहते हैं। यह वस्तुरूप से शब्दरूप में विचार का संक्रमण है। सविचार मन-वचन-काया के योग द्वारा अन्यान्य अवान्तर भेदों या पर्यायों में जो प्रवेश किया जाता है, उसे विचार कहते हैं। विचारसहित को सविचार कहते हैं। कुल मिलाकर यह स्पष्ट होता है कि पदार्थ और उसकी विविध पर्यायों में शब्द अथवा अर्थ के आधार पर मन, आदि विविध योगों के द्वारा पूर्वगत श्रुत के अनुसार जो चिन्तन किया जाए, वह विचार पृथक्त्ववितर्कसविचार नामक प्रथम शुक्लध्यान कहा जाता है। २. एकत्ववितर्क-अविचार - इसमें वस्तुतत्त्व की उत्पाद, व्यय और स्थिति में से किसी एक ही पर्याय में ध्यान होता है। इसमें अन्य योगों में संक्रमण नहीं होने से इसे अविचार कहा जाता है। इस तरह यह ध्यान पवनरहित दीपक की ली के समान स्थिर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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