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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 309 इसी तरह उत्तराध्ययन'44 एवं तत्त्वार्थसूत्र'45 में भी उत्तम संहननवाले के एकाग्रचित्त निरोध को ध्यान कहा गया है तथा उनमें भी ध्यान के इन्हीं चार भेदों का वर्णन किया गया है। इनमें स्थानांगसूत्र में शुक्लध्यान के चार लक्षण बताए गए हैं- (क) परीषह, उपसर्ग आदि से व्यथित न होना (ख) किसी प्रकार का मोह उत्पन्न न होना (ग) भेद-ज्ञान (घ) शरीरादि के प्रति ममत्वभाव का पूर्ण त्याग। वस्तुतः, समाधिमरण की साधना हेतु क्षपक में शुक्लध्यान के इन चारों लक्षणों का होना आवश्यक है। इन चारों लक्षणों से युक्त शुक्लध्यान का साधक क्षपक अन्त में शुक्लध्यान के व्युछिनक्रिया-अप्रतिपत्ति नामक चतुर्थ चरण को प्राप्त कर उसके माध्यम से मोक्षलक्ष्मी का वरण करता है।746 744 उत्तराध्ययनसूत्र, ३०/३५. 745 तत्वार्थसूत्र, १/२६ २७. 746 स्थानांगसूत्र ४/६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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