________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 279
जिन-जिन कारणों से आश्रव की उत्पत्ति होती है, उन-उन कारणों का निरोध करना ही संवर है। संवर के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना संवरभावना है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार- “ आश्रव का निरोध संवर है और वह संवर तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह भावना, बाईस परीषह, जय और पाँच प्रकार के चारित्र के पालन से होता है।"652 इस प्रकार संवरभावना और संवरतत्त्व में कारण - कार्य सम्बन्ध अत्यन्त स्पष्ट नजर आता है, क्योंकि बारह भावनाओं को संवर के कारणों में गिनाया गया है तथा संवरभावना भी बारह भावनाओं में एक भावना है। इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि संवरभावना कारण है और संवरतत्त्व कार्य है। अभेद-दृष्टि से देखें, तो दोनों एक ही सिद्ध होते हैं। मरणविभक्ति के अनुसार जीव को कर्म-आश्रवों का निरोध करना चाहिए। इसके लिए उसे मन, वचन, काय से इंद्रियों का निरोध एवं कषायों का नाश करना चाहिए। “संवर की प्राप्ति के लिए उद्यम करने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह क्षमा से क्रोध का, नम्रता से मान का, सरलता से माया का और निस्पृहता से लोभ का निवारण करे।"
हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र में संवरभावना के चिन्तन में किन-किन आश्रवों का किन-किन उपायों से निरोध किया जा सकता है- उसका निरूपण करते हुए कहा है कि संयम की साधना के द्वारा इंद्रियों की स्वच्छन्द प्रवृति को बलवान् बनने वाले विष के समान विषयों का तथा विषयों की कामना का निरोध करें। तीन गुप्तियों द्वारा तीनों योगों का, अप्रमाद से प्रमाद का और सावद्य-योग के त्याग से अव्रत का निवारण करें। सम्यग्दर्शन के द्वारा मिथ्यात्व को तथा शुभ-भावना से अशुभ-भावना का निरोध कर चित्त को स्थिर करके आर्त्त-रौद्रध्यान को परास्त करें।"655
इस प्रकार आचार्य ने आश्रव के हेतुओं के निरोध का उपाय बताकर साधक की साधना को सरल बना दिया है। इससे यह स्पष्ट है कि संवरभावना के चिन्तन में संवर के उपायों का जानना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु उनको आचरण में लाना भी आवश्यक है।
जीवों न तलागो इन, पूरिज्जइ पावसलिलेहि।। संवेगरंगशाला, गाथा ६७६०-८७६३. 652 आचार्य उमास्वामीः तत्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र १-२. 653 मरणविभक्ति - ६२०.
ज्ञानार्णव (संवरभावना), ६. 655 योगशास्त्र - ४/८१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org