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________________ 280 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री संवरभावना की चिन्तन-प्रक्रिया में भेद-विज्ञान और आत्मानुभूति की मुख्यता है। यहाँ समिति, गुप्ति, आदि के भेद-प्रभेदों के विस्तार में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। पण्डित दौलतरामजी का कहना है- “जिन्होंने पुण्य-पापरूप आश्रवभावों को न करके आत्मा के अनुभव में चित्त को लगाया है, उन्होंने ही आते हुए द्रव्यकों को रोक दिया है। इस प्रकार द्रव्याश्रव व भावाश्रव के अभावपूर्वक जिन्होंने द्रव्य व भाव-संवर को प्राप्त किया है, उन्हीं ने सुख का अनुभव किया है, अर्थात् सुख प्राप्त किया है।"656 यहाँ आत्मानुभव को संवर एवं उसकी भावना को संवरभावना कहा है। यह अनुभव भेद-ज्ञान से होता है। इस तरह संवर-भावना में भेद-विज्ञान और आत्मानुभूति की भावना ही प्रधान है। सम्पूर्ण संसार को स्व और पर में विभाजित करके पर से विमुख होकर स्व के सम्मुख होना ही भेद-विज्ञान है, आत्मानुभूति है, संवर है, संवरभावना का फल है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रागादि भाव आश्रव हैं और इनके अभाव में होनेवाला वीतराग भाव-संवर है। यह संवर ही मुक्ति-मार्ग का प्रथम प्रवेश द्वार है। इस संवर की उत्पत्ति भेद-विज्ञानपूर्वक हुई आत्मानुभूति के समय ही होती है। ६. निर्जरा-भावना :- संवेगरंगशाला में कहा गया है- आश्रव को संवर की सहायता से रोककर तप की सहायता से पूर्वसंचित कर्मों का क्षय करना ही निर्जरा है। निर्जरा के विषय में चिन्तन करना निर्जरा-भावना है। व्यक्ति हिंसात्मक भावों से हिंसा की क्रिया करके जो कर्मबन्ध करता है। उसे निकाचित कर्मबंध कहते हैं, इन कर्मो से मुक्ति इनके फल भोगने से ही होती है। अहिंसात्मक भावों से हिंसा करके जो कर्मबन्ध होता है, उसे निकाचित-कर्म कहते हैं। सामान्यतः, कर्मों की निर्जरा (मुक्ति) शुभ अध्यवसायों (भावों) से होती है, किन्तु इस तरह पूर्वकृत निकाचित-कर्मों की निर्जरा विविध तपों के द्वारा भी होती है। 657 तप की परिभाषा करते हुए कहा गया है- जो काया एवं कषायों को तपाता है, उसे तप कहते हैं। अनेक नरक एवं तिथंच के जीव भी दुःखों को सहन करते हुए शुभ अध्यवसायों से कमों को क्षीणकर, मनुष्यभव को प्राप्तकर, अन्त में मुक्त हुए हैं। शाम्ब, प्रद्युम्न, आदि महापुरुषों ने विविध तपादि के द्वारा अपने कर्मों की निर्जरा की है।658 प्रस्तुत कृति में भावों की विशुद्धता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि नरकादि में जीवों की अशुभभावना के कारण कष्टों को सहन करते हुए भी 656 पण्डित दौलतरामजी - छःठालाःपंचमढाल, छन्द १०. संवेगरंगशाला, गाथा ८७६४-६७६६. तावेइ तयारूहिराऽऽइ-धाउणो तह य सव्वकम्माणि। तेण तवो वि निरूत्तं, तवस्स समयन्नुणो बिति।। संवेगरंगशाला, गाथा ६७६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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