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________________ 278 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री मिथ्याध्यवसाय-बन्ध का कारण है, वहीं अन्य जीवों को जिलाने का अथवा सुखी करने का अध्यवसाय हो, तो वह पुण्यबन्ध का कारण है और मारने का अथवा दुःखी करने का अध्यवसाय हो, तो वह पापबन्ध का कारण है। इस प्रकार अहिंसाव्रत सत्यादिक तो पुण्यबन्ध के कारण हैं और हिंसावत असत्यादिक पापबन्ध के कारण है। ये सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, वे त्याज्य हैं, इसलिए हिंसादिवत् अहिंसादिक को भी बन्ध का कारण जानकर हेय ही मानना।"641 योगसार में कहा गया है- “पाप को पाप तो सारा जगत मानता है, ज्ञानी तो वह है, जो पुण्य को भी पाप जाने। तात्पर्य यह है कि जो पापाश्रव के समान पुण्याश्रव को भी हेय मानता है, वही ज्ञानी है।"649 __समयसार में तो यहाँ तक कहा है- “जब तक व्यक्ति आत्मा और आश्रव-इन दोनों में परस्पर भेद नहीं जानता है, तब तक वह अज्ञानी रहता हुआ क्रोधादिकरूप आश्रव-भावों में ही प्रवर्तित रहता है।" 650 अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम आत्मा की ही पर्याय में उत्पन्न मोह-राग-द्वेषरूप पुण्य-पापरूप आश्रव-भावों की परस्पर भिन्नता को भलीभांति जाने तथा आत्मा के उपादेयत्व एवं आश्रवों के हेयत्व का निरन्तर चिन्तन करें, विचार करें। यही चिन्तन-विचार आश्रव-भावना है। इस भावना के परिणामस्वरूप आत्मा बन्ध के हेतुओं से मुक्त होती है। ८. संवर-भावना :- संवर भावना के बार-बार चिन्तन से जीव सर्वदुःखों से मुक्त हो सकता है- ऐसा उल्लेख करते हुए संवेगरंगशाला में कहा गया है- “सर्व जीव आत्मवत् हैं।" ऐसा स्वीकार करनेवाला जीव आश्रवद्वारों को संवरभावना के द्वारा बन्द कर देता है, अर्थात् जीवरूपी सरोवर में पापरूपी जल के आगमन को बन्द कर देता है। आगमन के द्वार बन्द किए हुए सरोवर में जिस प्रकार नवीन जल का प्रवेश नहीं होता है, वैसे ही आश्रवरूपी द्वारों को बन्द कर देने से जीव में नवीन पापकर्मों का प्रवेश नहीं होता है। आगे कहा गया है कि जिन्होंने मिथ्यात्वादिक पाँचों आश्रवद्वारों को संवरभावना के चिन्तन से बन्द कर दिए हैं, वे मुनि धन्य हैं। साधक को आश्रव का विरोध करने के लिए संवरभावना का चिन्तन करना चाहिए। इससे जीव शरीर के प्रति अनासक्त और कषायों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।651 648 समयसार, गाथा २५२-२६०. 649 जोइन्दु योगसार - दूहा ७१. 650 समयसार, गाथा ६६. 'सव्वजिय अप्पतल्लो, संवरियाऽसेस आसवद्वारो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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