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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 277. ७. आश्रव-भावना :- बन्धन के कारणों पर विचार करना आश्रव-भावना है। संवेगरंगशाला में आश्रव-भावना के सम्बन्ध में कहा गया है कि संसार में जीव जिन दुःखों को प्राप्त करते हैं, वे उनके पूर्व-पापों के ही परिणामस्वरूप होते हैं। जिस प्रकार सरोवर में जल आने के अनेक मार्ग होते हैं, जिससे वह विशाल जल का संचय करता है, उसी प्रकार हिंसादि अनेक दुष्प्रवृत्तियों से जीव पापकर्म का संचय करता है। यदि जल आने के सर्व मार्ग को बन्द नहीं किया जाएगा, तो मलिन जल का सरोवर में प्रवेश होता रहेगा और वह सरोवर के स्वच्छ जल को भी गन्दा कर देगा। यदि हिंसा, चोरी, आदि दुष्प्रवृत्तियों का त्याग नहीं किया जाएगा, तो आत्मा में पापकर्मों का प्रवेश होता रहेगा और पापकर्म में डूबा जीव दुःखों को प्राप्त कर संसार में परिभ्रमण करता रहेगा, अतः अहिंसादि व्रतों को स्वीकार करके आश्रव-द्वारों को बन्द कर लेना चाहिए। समाधिमरण की साधना द्वारा इन व्रतों का पालन करते हुए व्यक्ति इच्छित फल को प्राप्त कर सकता है।643 यही बात मरणविभक्ति में भी कही गई है- “ईष्या, द्वेष, विषाद, क्रोध, मान, लोभ, आदि आश्रव के द्वार हैं। इन आश्रव-द्वारों के माध्यम से कमों का आगमन होता है। कर्मों का यह आगमन जीवों के गुणों के विनाश का कारण बनता है। जिस प्रकार समुद्र या नदी में रही हुई छिद्रयुक्त नौका जल भर जाने के कारण डूब जाती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म-पुद्गलों के भार से संसार-समुद्र में डूबा रहता है।"644 योगशास्त्र45, भगवतीआराधना646, मोक्षमार्ग-प्रकाशक:47, समयसार, आदि अनेक जैन-ग्रन्थों में भी कर्मबन्ध के मूल कारण को आश्रव कहा गया है, तथा प्रथम अशुभ-आश्रव का और फिर शुभ आश्रव का भी त्याग करने का उल्लेख किया गया है। निश्चयनयवादियों की मान्यता है कि आश्रवतत्त्व में जो पापाश्रव हैं, जीव उन्हें हेय जानता है और जो पुण्याश्रव हैं, उन्हें उपादेय मानता है, परन्तु ये दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं। इनमें पुण्याश्रव को उपादेयता मानना मिथ्यादृष्टि है। समयसार के बन्धाधिकार में यही कहा है- “सर्व जीवों के सुख-दुःख अपने कर्म के निमित्त से होते हैं। जहाँ अन्य जीव के इन कार्यों का कर्ता हो, वह 643 संवैगरंगशाला, गाथा ७५३-८७५६. 644 मरणविभक्ति, ६११ 645 योगशास्त्र - ४/७६. 646 भगवतीआराधना, १८१६. 647 मोक्षमार्ग-प्रकाशक, पृ. २२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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