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________________ 274 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं और पथिक की भांति मिलते एवं बिछुड़ते हैं। 629 सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद का कथन है कि शरीर से अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। अभेद प्रतीत होने पर भी लक्षण के भेद से मैं अन्य हूँ और शरीर अन्य है, मैं शरीर ऐन्द्रिक हूँ, मैं अतीन्द्रिय हूँ; शरीर अज्ञ है, मैं ज्ञाता हूँ; शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ, शरीर आदि-अन्तवाला है और मैं अनन्त हूँ; संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरे लाखों शरीर अतीत हो गए, मैं उससे भिन्न नहीं हूँ; इस प्रकार शरीर से भी जब मैं अन्य हूँ, तब हे वत्स! मैं बाह्य पदार्थो से भिन्न होऊँ, तो इसमें क्या आश्चर्य? __"आत्मा और शरीरादि संयोगों की परस्पर भिन्नता और अभिन्नता की वास्तविक स्थिति क्या है? इसका सोदाहरण चित्रण करते हुए पण्डित-प्रवर दौलतरामजी लिखते हैं- यद्यपि आत्मा और शरीर दूध और पानी की भांति मिले हुए हैं, तथापि वे अभिन्न नहीं हैं, पूर्णतः भिन्न ही हैं। जब (एकक्षेत्रावगाही) शरीर भी जीव से भिन्न है, तो फिर धन, मकान, पुत्र, पुत्री, पत्नी, जीव के अपने कैसे हो सकते हैं?"630 इसी प्रकार के भाव पद्मनंदिकृत पंचविंशति में भी व्यक्त किया गया है। पण्डित दीपचन्दजीकृत बारह भावना में यह बात और भी अधिक स्पष्ट रूप से कही गई है। समयसार की २७वीं गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने साफ-साफ लिखा हैव्यवहारनय से जीव और शरीर एक ही है, पर निश्चय से तो जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते।631 . इससे यह फलित होता है कि पर से स्व की भिन्नता का ज्ञान ही भेद-विज्ञान है और पर से भिन्न निज चेतन आत्मतत्त्व को जानना, मानना और अनुभव करना ही आत्मानुभूति है, आत्म-साधना है, आत्म-आराधना है। सम्पूर्ण जिनागम और जैन-अध्यात्म का सार इसमें समाहित है। अन्यत्व-भावना के चिन्तन की चरम परिणति भी यही है, अतः चिन्तन-मनन के विकल्पों से विरत होकर मात्र निज को ही जानते रहना है। पर से अन्तर स्थापित करने पर अनन्तवीर्य उल्लासित होगा, आनन्द का सागर तरंगित हो उठेगा, देह-देवल भी उसकी तरंगों से तरंगापित हो रोमांचित हो उठेगा, तेजोद्दीप्त हो उठेगा। जब यह सब अन्तर में सर्वार्थसिद्धि : अध्याय सूत्र ७ की टीका. ° जल-पथ ज्यों जिय-तन मेला, पै भित्र-भित्र नही भेला। तो प्रगट जुदे धन धामा, क्यों हो तवै इक मिली सुत रामा।। छह ढाला, पंचम ढाल, छन्द ७. 017 समयसार गाथा २७. प्रा. हुकमचन्द भारिल्ल, बारह भावना एक अनुशीलन. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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