________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 275
घटित होगा, तभी पर से एकत्व और ममत्व विघटित होगा, तभी अन्यत्व - भावना का चिन्तन सफल होगा, सार्थक होगा।
६. अशुचि - भावना :- अशुचि का “अपवित्रता” अर्थ करते हुए संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने जीव की पवित्रता एवं देह की अपवित्रता का विवेचन किया है। जीव एवं शरीर - दोनों पृथक्-पृथक् हैं, अतः मुक्त जीव पवित्र है और संसारी जीव अपवित्र है, क्योंकि संसारी जीव सशरीरी है और शरीर सदैव अशुचि से युक्त होता है और सिद्ध जीव अशरीरी होते हैं, अतः वे पवित्र हैं। यदि दोनों, अर्थात् जीव और शरीर में भिन्नता नहीं होती, तो जीवों का पवित्र होना सम्भव नहीं होता। 632 आगे, शरीर की अशुचिता का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि शरीर का विकास गर्भावास में होता है, जहाँ वह नौ महीनों तक मल, मूत्र, आदि अशुचि पदार्थों से विकसित होता है। उसके पश्चात् भी प्रतिपल शरीर के पसीने आदि की दुर्गन्ध से; माँस, मज्जा, आदि से युक्त होने से, रोगों से ग्रस्त होने से, विष्ठा एवं मूत्र के संग्रह से एवं नौ छिद्रों से निरन्तर अशुद्ध पदार्थों के झरते रहने से यह शरीर अपवित्र ही रहता है। 633
साथ ही इसमें यह भी निरूपित किया गया है कि अनेक उपायों के द्वारा भी शरीर की अपवित्रता को दूर नहीं किया जा सकता है, क्योंकि यह शरीर अशुचि से भरे हुए घड़े के समान है, इसको चाहे समस्त तीर्थों के पवित्र जल से जीवन भर धोया जाए, अथवा स्नान कराया जाए, फिर भी इसकी थोड़ी भी शुद्धि नहीं होती है। संवेगरंगशाला में शरीरी की अशुचिता का बोध कराकर इसके प्रति ममत्व का त्याग करने को कहा गया है। 634
यह शरीर अशुचि का भण्डार है, अतः शरीर - सम्बन्धी मोह को नष्ट करने के लिए अनेक जैन आचार्यों ने अपने - अपने ग्रन्थों में अशुचि - भावना का विधान किया है। संवेगरंगशाला में अशुचि - भावना के विवेचन में शरीर की अशुचिता एवं अशाश्वतता पर जैसा प्रकाश डाला गया है, वैसा ही उत्तराध्ययन सूत्र 35, मरणविभत्ति, 36 भगवती आराधना, 637 ज्ञानार्णव, . 638 आदि ग्रन्थों में भी समान रूप से मिलता है।
632 एत्थरम्मि मणिमय
गाथा, ८११५.
633 संवेगरंगशाला, गाथा ८११७- ८११६.
634
संवेगरंगशाला, गाथा ८१२०८१२१.
635
636
मउडोणामियासिरो सुरो एइ । वंदइयचारूदत्तं, पढ़म पच्छा तवस्सिं पि।। संवेगरंगशाला
उत्तराध्ययनसूत्र, १९/१३.
मरणविभक्ति, ६०६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org