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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 273 इस संसार में कौन किसका स्वजन है? अथवा कौन किसका परजन है? अर्थात् सभी पराए या अन्य हैं। यह जीव स्वयं शरीर से भिन्न है, वैभवादि से भिन्न है, प्रिया, पुत्र, मित्र, पितादि से भी भिन्न है, इसलिए अपना हित व्यक्ति को स्वयं करना चाहिए।624 मरणविभक्ति के अनुसार आत्मा से यह शरीर भिन्न है, बन्धु-बान्धव तथा संसार के समस्त भौतिक पदार्थ और रिश्ते-नाते, सभी हमसे भिन्न हैं। साथ ही हम (आत्मा) भी उन पर पदार्थो से भिन्न हैं। साधक को इस भिन्नता का बोध करना चाहिए।625 अन्यत्वभावना का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैंआत्मा ज्ञानदर्शनस्वरूप है और शरीरादिक सभी बाह्य-पदार्थ इससे भिन्न हैं- इस प्रकार चिन्तन करना अन्यत्वभावना है। 626 आचार्य शिवार्य का कथन है कि उपकार और उपकार करने के कारण ही कोई किसी का स्वजन या परिजन होता है, यथा - माता-पिता पुत्र का पालन इस आशय से करते हैं कि वृद्धावस्था में पुत्र उनका सहायक होगा। पुत्र माता-पिता का आदर-सत्कार इस विचार से करता है कि इन्हीं के कारण मेरा जन्म हुआ है, अर्थात् इन्हीं की कृपा से इस लोक में मेरा आगमन हुआ है, किन्तु यदि किसी कारणवश इन सम्बन्धों में परस्पर कोई तनाव उत्पन्न हो जाता है, तो वही माता-पिता, पुत्र, आदि एक दूसरे को पराया समझने लगते हैं। 627 आचार्य अमितगप्ति भी जीव से भिन्न देहादि संयोगों पर से दृष्टि हटा लेने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं- जिस आत्मा का शरीर के साथ भी ऐक्य नहीं है, उसका पुत्र, पत्नी और मित्र के साथ ऐक्य कैसे हो सकता है? ठीक ही है, क्योंकि शरीर से चमड़ी दूर कर देने पर रोमछिद्र कैसे रह सकते हैं?628 आचार्य कार्तिकेय का मत है कि माता-पिता, बन्धु-बान्धव एवं पुत्रादि सभी इष्टजन मेरे नहीं हैं। यह आत्मा उनसे सम्बन्धित नहीं है। वे सभी कर्मवशात् 624 संवेगरंगशाला, गाथा ८६८३-८६८६. ०५० अन्नं इमं सरीर अनोह, बंधवा वि मे अत्रे। एवं नाउण खमं, कुसलस्स न त खमं काउं।। मरणविभक्ति, ५६०. 626 अण्णं इमं सरीरादिगं, पि जं होज्ज बाहिरं दवा णणं दसणमादा एवं चिंतेहि अण्णता। बारस्स अणुवेक्खा गाथा, २३. 627 माया पोसेइ सुर्य आधारो में अविस्सदि इमोत्तिा पोसेदि सुदो मादं गन्मे परियों इमाएत्तिा। भगवतीआराधना, १७५५. 628 पंथे पहिय-जणाणं जह संजोओ हवेइ खणमित्ता बंधु जणाणं च तहा संजोओ अद्भुओ होइ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ११८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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