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272 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री उसके साथ दुःख भोगने के लिए कोई नहीं आता है, इसलिए कठोर उपसर्गों में भी मुनि को दूसरे से सहायता की इच्छा नहीं करना चाहिए।
- उत्तराध्ययन-सूत्र में एकत्व-भावना की चर्चा करते हुए कहा गया है कि आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता है, भोक्ता है और यही आत्मा कर्मों का क्षय करनेवाली है। श्रेष्ठ आचार से युक्त आत्मा अपना ही मित्र तथा दुराचार से युक्त आत्मा अपनी ही शत्रु है। दुराचार में प्रवृत्त आत्मा अपना जितना अधिक अनिष्ट करती है, उतना अनर्थ उसका गला काटनेवाला शत्रु भी नहीं करता, अतः अपने पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए।"621
मरणविभक्ति में एकत्व-भावना पर विचार करते हुए कहा गया है कि जीव अकेले ही कर्म करता है और अकेले ही अपने कमों का फल भी भोगता है। जीव अकेले ही सद्गति (मृत्यु) को प्राप्त करता है। मरणोपरान्त वह अकेले ही परलोक-गमन करता है। उसके साथ उसके स्वजन परलोक नहीं जाते हैं। 622
भगवतीआराधना में एकत्व-भावना का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा गया है कि इस लोक में जो हमारे बन्धु-बान्धव हैं, वे परलोक में हमारे बन्धु-बान्धव नहीं होंगे। इसी प्रकार धन, शरीर, शयन, आसनादि समस्त परिग्रह इसी लोक में काम आते हैं, परलोक में साथ नहीं जाएंगे। कभी-कभी तो ये परिग्रह इस लोक में ही व्यक्ति का साथ छोड़ देते हैं, अतः यह आशा करना व्यर्थ है कि ये समस्त स्वजन एवं परिग्रहादि परलोक में हमारे साथ रहेंगे।"623
इस प्रकार समाधिमरण की साधना के समय जो साधक एकत्व-भावना का चिन्तन करता है उसके मन में आत्मविश्वास जगता है और उसकी पराङ्मुखता समाप्त होती है। एकत्व-भावना से व्यक्ति अपना कल्याण कर सकता है, क्योंकि कल्याण और अकल्याण-दोनों व्यक्ति के अपने ही हाथों में है।
५. अन्यत्व-भावना :- जगत् के सम्पूर्ण पदार्थों से स्वयं को भिन्न समझना और इस भिन्नता का पुनः-पुनः विचार करना ही अन्यत्व-भावना है। संवेगरंगशाला में कहा है कि जीव स्वयं ही अपने किए कर्मों का फल भोगता है,
620 संवेगरंगशाला, गाथा ८६५६-८६६१. 021 न तं अरी कंठछेत्ता करेई जं से करें अप्पणिया दुरप्पा से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते पच्छाणुतावेण दयाविहूणो।। उत्तराध्ययन, २०/४८. 622 इक्को करेइ कम्मं फलमवि तस्सकओ समणुहवइ। इक्को जायइ मरइय, परलोयं इक्काओं जाइ।। मरणविभक्ति, ५८६. 025 इहलोग बंध्वा ते णियया परस्स होति लोगस्सा तह चेव घणं देहो संगा सयणासगा दी।। भगवतीआराधना, १७४६.
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