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________________ परिणामों के निमित्त से कर्मो का बन्ध होता है। जब वे कर्म अपना अशुभ फल देते हैं, तो उससे व्यक्ति को कोई नहीं बचा पाता है। 009 " आत्मा पर कर्मों का आवरण रहने के कारण व्यक्ति संसार को अपना शरणस्थल समझने लगता है। वह नाना प्रकार के दुःखों को भोगता हुआ भी इस संसार में रहने की कामना करता रहता है, लेकिन व्यक्ति को ऐसा विचार करना चाहिए कि असातावेदनीय कर्मों को नष्ट करने में सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप ही समर्थ हैं, अतः ये ही मेरे लिए रक्षक और शरणरूप हैं। "610 जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 269 इस प्रकार निष्कर्ष यह निकलता है कि अशरणभावना समाधिमरण में सहायकरूप है। एकाग्र मन से इस भावना का चिन्तन करने से व्यक्ति को यह ज्ञान होता है कि अपने कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता वह स्वयं है, अतः वह अपने कषायों को कृशकर मोह का त्याग करता है, तथा रागादि भावों को दूर करता है और इस प्रकार मुक्ति - पथ पर अग्रसर होता है। ३. संसार-भावना :- संसार की दुःखमयता का विचार करना ही संसार - भावना है। संवेगरंगशाला में कहा गया है कि इस संसार में जो वीतराग परमात्मा की आज्ञा को शिरोधार्य नहीं करता है, वह मोहरूपी जाल में फंसकर पराभव को प्राप्त करता है तथा विकारों से विकृत होकर एकेन्द्रिय, आदि विभिन्न तिर्यंच योनियों में भ्रमण करता है तथा देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नरक - योनि में परिभ्रमण करता हुआ वह जीव बार-बार जन्म मरण करता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक योनि में जन्म लेकर विविध प्रकार के बन्ध-बन्धन, अपमान, महारोग, शोक और क्लेश को प्राप्त करता है । "" यहाँ ग्रन्थकार के कहने का तात्पर्य यह है कि ऊर्ध्वलोक, तिर्यचलोक और अधोलोक - इस प्रकार इन तीनों लोकों में ऐसा कोई एक भी आकाश-प्रदेश नहीं होगा, जहाँ जीव ने अनेक बार जन्म- जरा - मरण को प्राप्त नहीं किया हो । 612 संवेगरंगशाला में आगे कहा गया है कि जिस भोग-सामग्री को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति दुःखी हो रहा है, उस भोग-सामग्री को यह जीव पूर्व में अनेक बार प्राप्त कर छोड़ चुका है, इसलिए उस जीव के साथ अन्य जीवों के 609 610 611 संवेगरंगशाला, गाथा ८६२३-८६२५. 612 संवेगरंगशाला, गाथा ८६२६.... भगवती आराधना, १७२६. भगवती आराधना, १७४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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