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________________ 270 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री सम्बन्ध को लेकर इस ग्रन्थ में यह प्रतिपादित किया गया है कि इस संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव ने प्रत्येक जीव के साथ स्वजन, मित्र, स्वामी, सेवक, शत्रु, आदि विविध रूपों में अनेक बार सम्बन्ध बनाए हैं। 6 1 3 इस संसार में माता मरकर पुत्री हो जाती है और पिता मरकर पुत्र होता है। इसी जगत् में जीव अपने शरीर के रूप एवं यौवन का अभिमान करता है । कालान्तर में मरकर पुनः अपने ही शरीर में कीड़ों के रूप में उत्पन्न हो जाता है। यहाँ माता मरकर पशु, आदि योनि में जन्म लेकर अपने ही पुत्र के शरीर के माँस को खाती है। इस संसार से महाकष्टकारक और क्या हो सकता है ? जहाँ स्वामी सेवक बनता है और सेवक मालिक बनता है। पिता पुत्र बनता है और पूर्व वैरभाव के कारण पिता पुत्र के हाथों मारा जाता है । अन्त में संसार - भावना के सन्दर्भ में एक तापस की कथा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ऐसे संसार के स्वरूप को धिक्कार हो, जहाँ जीव लम्बी अवधि तक दुःखों को प्राप्त करता है। 614 संसरण ही संसार है और चतुर्गति में परिभ्रमण ही संसरण है। ये चारों गतियाँ दुःखी जीवों से भरी पड़ी हैं। इन गतियों में कहीं भी सुख (सार) नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में संसार की दुःखमयता को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जन्म दुःखमय है, रोग और मरण दुःखमय हैं, यह सम्पूर्ण संसार दुःखमय है, जिसमें प्राणी को क्लेश प्राप्त हो रहा है। यह लोक मृत्यु से पीड़ित है, जरा से घिरा हुआ है और रात - दिनरूपी शस्त्र धारा से त्रुटित है। 15 मरणविभत्ति के अनुसार यह संसार दुःखमय है। यहाँ जीव अनेक प्रकार के बन्धनों से बन्धा हुआ दुःख भोगता है। जीव अपने बन्धु-बान्धव, मित्र-पुत्र, धन-वैभव, भोग-विलास के साधनों आदि का विनाश होने पर एवं शरीर में रोगादि होने पर दुःखी होता है । इस संसार में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ व्यक्ति जन्म- जरा - मरण, आदि के क्लेशों से मुक्त हो। 16 613 संवेगरंगशाला, गाथा ८६२७-८६२६. 614 सोहग्गरूवगव्वं समुव्वहंतो जुवा वि मरिऊण । त्तथेव नियसरीरे, जायई जम्मि किमित्ते । । संवेगरंगशाला, गाथा ८६३०-८६३३. जस्म दुक्खं जरा दुक्ख रोगाय मरणाणिय। अहो! दुक्खों हु संसारो जत्थकीसन्ति जन्तवो। । उत्तराध्ययन 615 १६/१५. 6167 सो नत्यि इहोगास लोए वालग्गकोडिमित्तो वि । जम्मण मरणा बाहा अणेगसो जत्थ न य पत्ता ।। मरणविभत्ति - ५६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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