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268 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री कमों का भोक्ता स्वयं है। उसके समस्त बन्धु, बान्धव, स्वजनादि उसे उसके कमों के भोग से बचा नहीं सकते हैं।605
संवेगरंगशाला में आगे यह भी कहा गया है कि व्यक्ति यदि अनेक मन्त्रों के मन्त्रित जल से स्नान करे, अथवा मन्त्रित चूर्णादि का सेवन करे, किन्तु वे मन्त्र एवं औषधियाँ उस व्यक्ति की मृत्यु से रक्षा करने में असमर्थ हैं, इसलिए साधक को संसारी वस्तुओं में राग-भाव का त्याग करके एकाग्रचित्त से उनकी अशरणता की भावना का चिन्तन करना चाहिए - संसार में कोई भी शरणभूत नहीं है। मात्र धर्म की ही शरण सत्य एवं शाश्वत है, अन्य सभी शरण असत्य एवं अशरणरूप हैं। इस ग्रन्थ में अनाथीमुनि के कथानक द्वारा संसार की इस अशरणता का प्रतिपादन किया गया है।606
उत्तराध्ययन में भी कहा गया है कि जिस प्रकार वन में मृग को सिंह पकड़कर ले जाता है, उसी प्रकार अन्त समय में मृत्यु भी मनुष्य को ले जाती है। माता-पिता, भाई-बहन या कोई भी उसे मृत्यु के पंजे से मुक्त नहीं करा पाता
है।607
"मरणविभक्ति के अनुसार जन्म-जरा-मरण से कोई नहीं बच सकता है। विविध प्रकार के मांगलिक कार्य, मन्त्र, तन्त्र, पुत्र, मित्र, बन्धु-बान्धव भी जीव को मृत्यु से नहीं बचा सकते हैं।608
- इससे यही फलित होता है कि मनुष्य मृत्यु से बचने के लिए अगणित प्रयत्न करता है, किन्तु वे सभी प्रयास कभी भी सफल नहीं हुए हैं, न होंगे, अतः इन निरर्थक प्रयासों में मनुष्य को उलझना नहीं चाहिए और इस अशरण-भावना के द्वारा सांसारिक-जीवन से विरक्त होना चाहिए।
"भगवती आराधना में भी अशरण-भावना पर प्रकाश डालते हुए यह कहा गया है कि व्यक्ति को कर्मों के विपाक के भोग से कोई भी नहीं बचा सकता है। यह आत्मा अपने कर्मों के कारण ही बन्धन में पड़ती है। जीव के कषायरूप
605 संवेगरंगशाला, गाथा ८५६०-८५६२ 606 संवेगरंगशाला गाथा, ८५६३-८५६५. 607 जहेह सीहो व मियं गहाय मच्चू नरं नेई हु अन्तकाले। न तस्स माया व पिया व भाया कालम्मि ताम्मिऽसहराभवंति।। उत्तराध्ययन, १३/२२. 60° जन्म-जरा-मरणभए अभिहए विविह वाहि संत्तेलोगाम्मि नत्यि सरणं जिणिंद वरसासणं मृत।। मरणविभत्ति ५७६, एवं गाथा ५८१-५८२.
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