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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 267 प्रति आसक्त नहीं रहना चाहिए। 600 भगवती आराधना के अनुसार व्यक्ति का शरीर फेन के बुलबुले के समान नश्वर है। जिस प्रकार फेन के बुलबुले नष्ट होते हैं, उसी प्रकार शरीर भी अवश्य नष्ट होता है। 601 इसलिए कहा गया है कि “व्यक्ति को इस शरीर के नष्ट होने पर दुःखी नहीं होना चाहिए। उसे इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि जिस प्रकार पक्षी दिन निकलने पर वृक्ष को छोड़कर अपने-अपने रास्ते की तरफ चल पड़ते हैं; उसी प्रकार प्राणी भी अपनी आयु पूर्ण होने पर अपने-अपने कर्मों के अनुसार अन्य योनियों में उत्पन्न होते हैं। 602 उत्तराध्ययन में भी कहा गया है कि व्यक्ति का यह शरीर अनित्य है, अपवित्र है और इसकी उत्पत्ति अशुचि से हुई है। इसमें जीव का निवास भी अशाश्वत है। 603 इस तरह संवेगरंगशाला के समान ही अनेक जैन-ग्रन्थों में भी अनित्य - भावना का उल्लेख किया गया है। अनित्य - भावना के चिन्तन से व्यक्ति के मन में सांसारिक वस्तुओं एवं शरीर की नश्वरता, आदि का ज्ञान होता है, इसके द्वारा व्यक्ति का उनके प्रति रहा हुआ राग-भाव समाप्त होता है और वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एकाग्रचित्त होकर आगे बढ़ता है। २. अशरण-भावना :- “व्यक्ति को मृत्यु के मुख से बचाने में कोई समर्थ नही है”- इस प्रकार की भावना को अशरण - भावना कहते हैं। संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने अशरण - भावना का चित्रण करते हुए कहा है- सर्व जीवों का रक्षण करने में समर्थ (करुणावत्सल) वीतराग परमात्मा ही शरणभूत है। इनको छोड़कर जन्म, जरा, मरण, उद्वेग, शोक, दुःख और व्याधियों से ग्रस्त इस भयंकर संसार - अटवी में प्राणियों के लिए कोई भी शरण नहीं है। 604 इसमें आगे यह भी कहा गया है कि जिन-वचन पर श्रद्धा रखनेवाली आत्माओं के द्वारा या नीतिबल के द्वारा अथवा पुरुषार्थ बल के द्वारा न तो पूर्व में मृत्यु पर विजय प्राप्त की, न वर्तमान में विजय प्राप्त की है और न भविष्य में विजय प्राप्त कर सकेगा। साथ ही यह कहा गया है कि माता-पिता, पुत्र-पुत्री, अत्यन्त स्नेही स्वजन और धन-सम्पत्ति - इनमें से कोई भी रोग से पीड़ित मनुष्य को ( रोग शान्त करने में) अल्प भी शरण देने में समर्थ नहीं है। इससे यह फलित होता है कि मनुष्य अपने 600 बारसाणुप्रेक्खा, गाथा ३ से ५ 601 भगवती आराधना १७/११. 602 भावनायोग - ५ 603 604 उत्तराध्ययनसूत्र १६ /१२. संवेगरंगशाला, गाथा ८५-८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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